प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ/विशेषताएँ
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में सबसे बड़ी खूबी यह थी कि साहित्य और समाज नजदीक आए। सामाजिक सरोकारों से साहित्य गुम्फित हुआ। प्रगतिवाद आधुनिक काल के उपभेदों में से एक ऐसा उपभेद रहा है जिसने व्यक्ति और समाज को साहित्य से सबसे अधिक जोड़ा।
एक वाक्य में यदि हम प्रगतिवाद को स्पष्ट करना चाहें तो कह सकते हैं कि राजनीति विज्ञान में जिस विचारधारा को मार्क्सवाद अथवा साम्यवाद कहते हैं उसी को हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद के नाम से जाना जाता है। दूसरे शब्दों में प्रगतिवाद की नींव में मार्क्सवाद के सिद्धांत हैं। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन प्रगतिवाद के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। अन्य कवियों में रामेश्वर शुक्ल अंचल, रामधारी सिंह दिनकर, शिवमंगल सिंह सुमन, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से रेखांकित की जा सकती हैं।
1.पूंजीवाद का तीव्र विरोध-
प्रगतिवादी विचारधारा में माना जाता है कि पूंजीवाद शोषण का प्रतीक है। पूंजीवादियों ने विश्व के संसाधनों पर नाजायज़ कब्ज़ा जमाया हुआ है। हालांकि यह संख्या में कम होते हैं परंतु धन-बल के ज़ोर से यह जन-बल को दबाकर रखते हैं। पूंजीवादियों की तुलना इस विचारधारा में खटमल से करते हुए दिखाया गया है। जैसे खटमल आकार में छोटा होने के बावजूद एक पूरे इंसान का खून आसानी से चूस सकता है, उसी प्रकार थोड़े से पूंजीवादी बहुसंख्यक वर्ग के लिए शोषणकारी नियम क़ायदे और माहौल बना सकते हैं।
उदाहरण-
पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है,
कोटि कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है।
बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी,
यदि क्षमा कर दूं उन्हें, धिक्कार माँ की कोख मेरी।
(शिवमंगल सिंह ‘सुमन’)
2.श्रमिकों के प्रति सहानुभूति और विषमता का विरोध-
प्रगतिवादी काव्यधारा में कवियों ने न सिर्फ़ पूंजीवाद का विरोध किया है बल्कि मेहनतकश वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार दर्शाया है। संसाधनों पर श्रमिकों के पहले हक़ की बात यह काव्यधारा पुरजोर तरीके से करती है।
उदाहरण-
एक ओर समृद्धि थिरकती,पास सिसकती है कंगाली,
एक देह पर एक न चिथड़ा,एक स्वर्ण के गहनों वाली,
उधर खड़े हैं रम्य महल,वे आसमान को छूने वाले,
और बगल में बनी झोपड़ी जिसके छप्पर चूने वाले।
3.वर्ग चेतना और भौतिकवाद की समझ विकसित करना-
इन कवियों ने वर्ग चेतना का संचार किया, विषमताओं का खुल कर विरोध किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने इहलोक को परलोक पर तरजीह दी। भौतिक वस्तुओं की जरूरत पर आध्यात्मिक ज़रूरतों को नकार कर बल दिया। देव विग्रह की अभ्यर्थना से अधिक महत्त्व इन कवियों ने जीते-जागते लोगों की सुध लेने को दिया।
उदाहरण-
सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताल पहन इठलाती है
दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख
मंदिरों में,राजप्रासादों में, तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
(रामधारी सिंह दिनकर)
4. ईश्वर की अवधारणा से इनकार-
प्रगतिवादी काव्य में ईश्वर के अस्तित्व को नकारा गया है अथवा उसे शोषकों का हथियार माना गया है। मार्क्सवादी साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन से एक बार किसी ने पूछा था- “ ईश्वर कौन है? “ इस पर उनका जवाब था- “ ईश्वर मनुष्य का मानस पुत्र है। “ ये साहित्यकार मानते थे कि ईश्वर समर्थ लोगों की कल्पना है गरीबों को दबाने के लिए। इस पर नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता भी है- “कल्पना के पुत्र, हे भगवान! “
उदाहरण-
ऊपर बहुत दूर रहता है शायद आत्मप्रवंचक एक
जिसके प्राणों में विस्मृति है, उर में सुखश्री काअतिरेक
जिसका ले ले नाम युगों से मांस लुटाते तुम रोये
किंतु न चेता जो निशि-निशि भर तब तक क्षुधातुर तुम सोये
आज अस्त हो जाय वही अभिशाप अनय रौरव पोषक,
और वही दुर्दांत महा उन्मत्त हड्डियों का शोषक।
(रामेश्वर शुक्ल अंचल)
5. भाग्यवाद, पुनर्जन्म, संतोष और कर्म सिद्धांत का विरोध-
प्रगतिवादी विचारों का भाग्यवाद, पुनर्जन्म, संतोष और कर्म सिद्धांत से भी सरोकार नहीं है। ये कवि मानते हैं कि भाग्यवाद का आसरा देकर पूंजीपतियों ने गरीबों को ठगा है, जिससे वे अपनी दुर्दशा के लिए अपने भाग्य और पूर्वजन्म को दोष देकर पूंजीपतियों के प्रति बदले की भावना न रखें। इसी प्रकार संतोष रखने की सीख देकर उन्हें कम में गुजारा करने के लिए खुशी-खुशी राजी किया जा सकता है। पिछले जन्म और कर्मों के फल की बात कह कर अमीरों ने गरीबों को उनके हाल के लिए खुद को दोषी मानना सिखाया। इन चीजों से बाहर आकर शोषित अपने शोषण को समझेंगे और बदलाव की हर संभव कोशिश करेंगे, ऐसा प्रगतिवादी कवियों का मानना है।
उदाहरण-
मन से अब संतोष हटाओ।
असंतोष का नाद उठाओ।।
करो क्रांति का नारा ऊंचा।
भूखों अपनी भूख बढाओ।।
( हरिवंशराय बच्चन)
6. शोषण से मुक्ति के लिए रक्त क्रांति का आह्वान-
जहां गांधी जी मानते थे कि पवित्र साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों का पवित्र होना अत्यंत आवश्यक है, वहीं मार्क्सवाद की तर्ज पर प्रगतिवादी कवियों ने माना है कि शोषण से मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा भी जायज़ है। रक्त बहाकर भी न्याय मिले तो न्याय ले लेना चाहिए।
उदाहरण-
स्वानों को मिलता दूध भात
भूखा बालक अकुलाता है
माँ की छाती से ठिठुर चिपक
जाड़े की रात बिताता है
युवती के लज्जा वसन बेच
जब ब्याज चुकाये जाते हैं
मालिक जब तेल फुलेलों पर
पानी सा द्रव्य बहाते हैं-
पापी महलों का अहंकार
तब देता मुझको आमंत्रण।
(रामधारी सिंह दिनकर)
7.जातिवाद का विरोध-
इस युग के कवियों ने वर्ण व्यवस्था और जातिवाद को भी निशाने पर लिया। जाति के आधार पर की जाने वाली छुआछूत और भेदभाव का इन कवियों ने तीखा विरोध किया। सवर्ण मानसिकता पर प्रहार करते हुए प्रगतिवादी कवि रामेश्वर शुक्ल अंचल ने यहां तक लिखा है कि,
वह नस्ल जिसे कहते मानव
कीड़े से आज गई बीती
बुझ जाती तो आश्चर्य न था
हैरत है पर कैसी जीती!
8.स्त्री समानता का समर्थन-
प्रगतिवादी विचारधारा में लैंगिक असमानता के लिए भी स्थान नहीं था। इन कवियों ने स्त्री-पुरुष समानता के दृष्टिकोण के प्रति अपनी पक्षधरता दिखाई। प्रगतिवाद के कवियों ने शोषण के हर रूप के विरुद्ध लिखा।
9.साम्यवादी प्रतीकों के प्रति सम्मान का भाव-
प्रगतिवादी कवियों ने अपनी मूल विचारधारा मार्क्सवाद अथवा साम्यवाद के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए साम्यवाद के प्रतीकों यथा झंडे, झंडे का रंग, साम्यवादी देश रूस इत्यादि के प्रति सम्मानजनक कविताएं लिखी।
10.भाषा में अभिधा की प्रधानता-
छायावादी कवियों की तरह प्रगतिवादी भाषा में लक्षणा और व्यंजना की प्रधानता नहीं थी। यह काव्य आम जनता का होने के कारण कवियों ने जनसाधारण में प्रचलित भाषा और मुहावरों का प्रयोग बहुतायत में किया।
11.यथार्थ की भूमि पर रचा जाने वाला काव्य-
छायावादी काव्य धारा जहां कल्पना की अतिशयता के आरोप से ग्रस्त थी, वहीं प्रगतिवादी काव्य हालात और हक़ीक़त की बात करता है। समाज में जो कुछ भी हो रहा है वह सब इस काव्याधरा में दर्ज़ हुआ है। यहां काल्पनिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। भुखमरी, बेरोजगारी, दहेज,अंधविश्वासों, सरकारी भ्रष्टाचार, अकाल और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं इत्यादि वास्तविक समस्याओं पर प्रगतिवादी कवियों ने सरल शब्दावली में विश्वसनीय साहित्य रचा है। खेती किसानी के विश्वसनीय चित्र इस काव्य में देखे जा सकते हैं। प्रकृति यहाँ रोमानी नहीं बल्कि अपने असली रूप में उपलब्ध है।
इस प्रकार हम देख रहे हैं कि पूंजीवाद के कारण उत्पन्न सामाजिक विषमताओं और श्रमिकों के शोषण का चित्रण करने के साथ-साथ प्रगतिवाद में हर प्रकार की समानता का पुरज़ोर समर्थन किया गया है। इस काव्य धारा में भाग्यविधाता मनुष्य की श्रमशक्ति को मानते हुए सभी प्रकार के अंधविश्वासों और शोषण के साधनों का तीव्र विरोध किया गया है।
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https://youtu.be/aa5ybCGpGxU?si=s3QE7AODiVsCEFxk
© डॉक्टर संजू सदानीरा
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