ज़िन्दगी और गुलाब के फूल कहानी का सारांश

ज़िन्दगी और गुलाब के फूल कहानी का सारांश

“ज़िन्दगी और गुलाब के फूल कहानी में मानवीय संबंधों को मार्मिकता के साथ व्यक्त किया गया है ।” कहानी के आधार पर सिद्ध कीजिए।

अथवा ज़िन्दगी और गुलाब के फूल कहानी के माध्यम से सुबोध की हताशा और कुंठा का चित्रण करें।

उषा प्रियंवदा आधुनिक युग की सशक्त महिला साहित्यकार हैं। उन्होंने वापसी जैसी कालजयी कहानी लिखकर हिंदी जगत को चौंका दिया था । छुट्टी का दिन, जाले और एक कोई दूसरा इत्यादि उषा प्रियंवदा जी की अन्य महत्त्वपूर्ण कहानियां हैं।

नई कहानी के कहानीकारों में उनका विशिष्ट स्थान है । रुकोगी नहीं राधिका, शेष यात्रा, पचपन खंभे लाल दीवारें उनके बहुचर्चित उपन्यास हैं। पचपन खंभे लाल दीवारें पर तो दूरदर्शन पर धारावाहिक भी प्रसारित हुआ था।

ज़िन्दगी और गुलाब के फूल उनकी एक मर्मस्पर्शी और लोकप्रिय कहानी है जिसमें वर्तमान युग की सहज मानवीय अनुभूतियों पर मार्मिकता से प्रकाश डाला गया है।

कथानायक सुबोध एक हताश प्रेमी और निराशा युवक का प्रतिनिधित्व करता है। गुलाब के फूल उसके सुखद अतीत का प्रतीक है जब उसके पास एक अच्छी नौकरी और युवा सहचर होती है। तब उसके जीवन में सुख और फूलों की खुशबू जैसी शांति थी। उसकी सिद्धांतप्रियता से उसकी नौकरी चली जाती है। नौकरी जाने से “शोभा विहीन” सुबोध सचमुच “शोभाहीन” प्रतीत होता है। वहीं छोटी बहन वृंदा का नौकरी करना और धीरे-धीरे उसकी वस्तुओं पर अधिकार जताना उसकी एक और पराजय है जिसका दर्द कहानी में पूरी शिद्दत से व्यक्त हुआ है ।

सुबोध की मां किसी कहानी का एक पात्र नहीं बल्कि हाड़ मांस की चलती फिरती निम्न वर्ग की एक बेबस मां प्रतीत होती है । बेटे के प्रति उसका स्नेह, उसकी पराजय से उपजी चोट, स्वंय उसकी अपनी पीड़ा कहानी में कई जगहों पर व्यक्त हुई है। सुबोध का चोट खाना, पार्क में पड़े रहना एक हारे हुए युवा मन की पीड़ा का तीव्र एहसास कराते हैं ।

कहानी का अंत अत्यंत मर्मस्पर्शी है जब थका-हारा सुबोध न चाहते हुए भी घर लौटता है और कमरे में रखे खाने पर लालचियों की तरह टूट पड़ता है। कहानी का या अंतिम वाक्य उसके स्वाभिमान की टूटन और पूरी तरह टूट चुके उसके मन की व्यथा को उभरता है।

कहानी भाई-बहन के, मां-बेटी के और मां-बेटे के संबंधों को नए जमाने के बदलते परिवेश की नई रोशनी में देखती है। नायक के घर का वातावरण, उसके सबके साथ संवाद, उसकी घुटन और भटकन हमें कहानी से एक नए मानवीय धरातल पर जोड़ती है। चूंकि लेखिका को विदेशी सरजमीं और आधुनिक जीवन शैली का गहन अनुभव है तो उन्हें कहानी का परिवेश भी वैसा बनाने में सहज सफलता मिली है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि इस कहानी में एक साथ कई पहलुओं पर विचार किया गया है। सिद्धांतप्रियता का नौकरी में आड़े आना, बेरोजगारी से परिवार में व्यक्ति के रुतबे में परिवर्तन, जीवनसाथी चुनने में मां-बाप की प्राथमिकताएं और मजबूरन चुप रह जाने वाली खामोश प्रेयसी और इन सब परिस्थितियों से एक साथ त्रस्त एक शिक्षित नौजवान की घुटन और बेबसी का सटीक चित्रण कहानी में किया गया है ।

पितृसत्तात्मक समाज में कैसे लड़कों की बेरोजगारी बर्दाश्त के काबिल नहीं, किस प्रकार घर के कामों का रोल डिविजन जेंडर के आधार पर सामान्य मान लिया जाता है, कैसे रूढ़ ढांचे के विपरीत घर की लड़की का कमाना परिवार को अस्त-व्यस्त करने वाला दिखाया गया है – यह सब कहानी को तात्त्विक कसौटी पर भी कसता है।

कुल मिलाकर कहानी अपने कथ्य को स्पष्ट करने में पूरी तरह सफल रही है।

© डॉ. संजू सदानीरा

त्यागपत्र उपन्यास की मूल संवेदना

Dr. Sanju Sadaneera

डॉ. संजू सदानीरा एक प्रतिष्ठित असिस्टेंट प्रोफेसर और हिंदी साहित्य विभाग की प्रमुख हैं।इन्हें अकादमिक क्षेत्र में बीस वर्षों से अधिक का समर्पित कार्यानुभव है। हिन्दी, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान विषयों में परास्नातक डॉ. संजू सदानीरा ने हिंदी साहित्य में नेट, जेआरएफ सहित अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के उपन्यासों पर शोध कार्य किया है। ये "Dr. Sanju Sadaneera" यूट्यूब चैनल के माध्यम से भी शिक्षा के प्रसार एवं सकारात्मक सामाजिक बदलाव हेतु सक्रिय हैं।

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