ताराबाई शिंदे: भारत की पहली आधुनिक नारीवादी लेखिका
भारत के इतिहास में अनेक ऐसे गुमनाम शख़्सियत हैं जिन्होंने आज से सैकड़ो साल पहले क्रांति की वह मशाल जला दी जो आज भी मार्गदर्शन का काम कर रही है। नारीवाद का जिक्र होते ही ज़्यादातर लोग सावित्रीबाई फुले या पंडिता रमाबाई जैसे नामों का उल्लेख करते हैं। लेकिन इन सब के साथ ही वंचित समुदाय से आने वाली एक ऐसी महिला ने वह सवाल उठाया था जिसने नारीवादी क्रांति की दिशा में नींव का काम किया। भारत की पहली आधुनिक नारीवादी लेखक कही जाने वाली ताराबाई शिंदे ने अपनी किताब “स्त्री–पुरुष तुलना” में समाज से ऐसे तर्कपूर्ण और ज्वलंत सवाल उठाए जिसका जवाब आज तक पितृसत्तात्मक समाज के पास नहीं है।
ताराबाई शिंदे कौन थीं? शुरुआती जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
ताराबाई शिंदे का जन्म 1850 में महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता हरि शिंदे सत्यशोधक समाज के शुरुआती सदस्यों में से थे। ये सकारात्मक सामाजिक बदलाव के लिए सक्रिय थे और महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर सामाजिक सुधार का काम करते थे। घर में तमाम तरीके के समाचार पत्र-पत्रिकाएं और किताबें आती रहती थीं, विचार विमर्श होते रहते थे। इस तरह से ताराबाई को बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई का माहौल मिला जिसने इनके मन में तर्क और सवालों को जन्म देने का काम किया।
मराठी के साथ साथ इन्होंने अंग्रेज़ी और संस्कृत का भी अध्ययन किया। उसे समय की परंपरा के अनुसार महज 11 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई और कुछ ही वर्षों बाद विधवा हो गईं। उस समय का समाज ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के रूढ़िवादी नियमों से बंधा हुआ था। जिस वजह से ताराबाई शिंदे को विधवा जीवन की कठोरता, भेदभाव, सामाजिक अलगाव और अपमान को करीब से झेलना पड़ा। विधवा महिलाओं के रहने, खाने-पीने और पहनने के अलग नियम होते थे, जबकि इस स्थिति में विधुर पुरुषों के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी। इन सब ने ताराबाई के मन पर गहरा असर डाला और उनके जीवन की दिशा बदलने का काम किया।
वह घटना जिसने ताराबाई शिंदे को लिखने पर मजबूर किया
ताराबाई शिंदे समाज की भेदभावपूर्ण पितृसत्तात्मक परंपराओं को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं। पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग सामाजिक नियम का दोहरा मापदंड हमेशा सोचने पर मजबूर करता था। इसी दौरान 1881 में घटी एक घटना ने इन्हें इन मुद्दों पर लिखने के लिए मजबूर कर दिया। सूरत के पास एक विधवा ब्राह्मणी विजयलक्ष्मी की गर्भवती और भ्रूण हत्या का दोषी पाए जाने पर तत्कालीन ब्रिटिश कोर्ट ने उसे मृत्युदंड की सजा सुनाई।
उस समय की पत्र-पत्रिकाओं में उस महिला को चरित्रहीन और ब्राह्मण समाज के लिए कलंकित बताया गया। पूरे समाज में उसे महिला को बदनाम किया गया और एक तरीके से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। जबकि उसी जगह उस पुरुष को कुछ नहीं कहा गया जो इन सब के लिए ज़िम्मेदार था।
समाज के इस दोहरे रवैये ने ताराबाई के मन को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया। लैंगिक भेदभाव और अन्याय की उस आग ने शब्दों के रूप में आकर लिया और 1882 में “स्त्री पुरुष तुलना” नामक उस ग्रंथ की रचना हुई। जिसने ताराबाई शिंदे को भारत की पहली आधुनिक नारीवादी लेखिका के तौर पर स्थापित कर दिया।
ताराबाई शिंदे की किताब ‘स्त्री–पुरुष तुलना’ पहला आधुनिक नारीवादी ग्रंथ
ताराबाई की इस किताब स्त्री पुरुष तुलना को भारत का पहला आधुनिक नारीवादी ग्रंथ माना जाता है। इस किताब के माध्यम से रखे गए तर्कपूर्ण सवाल ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जाति पर आधारित थे। ताराबाई शिंदे ने किताब में जो तर्क दिए वह आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। इन्होंने सवाल किया कि “चरित्रहीनता पैदा कौन करता है? तुम ही तो!” ताराबाई लिखती हैं कि पुरुष स्त्रियों पर चरित्र और नैतिकता का नियम थोपते हैं जबकि वही पुरुष समाज में अनैतिकता का माहौल बनाते हैं और ऐसी स्थिति के लिए मजबूर करतेहैं।
इन्होंने अपनी किताब में जीवनसाथी की मृत्यु पर महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग नियमों को भी चुनौती दी। विधवा को मुंडन कराना, सफेद कपड़े पहनाना, सामाजिक अलगाव और बहिष्कार करना जबकि विधुर को दूसरी शादी की पूरी आज़ादी “विधवा पर नियम, विधुर पर आज़ादी, यह कैसा न्याय?”
इसके साथ ही इन्होंने महिलाओं को नियंत्रित करने के लिए धर्म के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाया। ताराबाई शिंदे ने पूछा कि “धर्म का डर सिर्फ़ स्त्रियों पर क्यों लागू होता है?” सती प्रथा और विधवा प्रथा में धर्म का इस्तेमाल किस तरह से स्त्री को नियंत्रण में रखने के लिए किया गया है इन सारी बातों पर इन्होंने लिखा। इनका मानना था कि शास्त्रों को ईश्वर का शब्द बताकर पुरुषों ने अपने फ़ायदे के लिए नियम क़ानून बनाए और समाज पर उन्हें थोपा।
इस तरह से इस किताब में ऐसे सवाल उठाए जो उस समय की परिस्थिति और समाज के हिसाब से बहुत ही आगे के थे। ऐसे में इस किताब के छपते ही बवाल मच गया। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाचार पत्र और पत्रिकाओं में इन्हें “धर्मद्रोही” तक कहा गया। धर्म, परंपरा और संस्कृति के नाम पर ताराबाई शिंदे पर चौतरफा हमला शुरू हो गया। इसके बावजूद इस किताब की 500 से ज्यादा प्रतियां बिक गईं जो उस समय के हिसाब से अभूतपूर्व था। हालांकि उस समय भी ज्योतिबा फुले ने इनका समर्थन किया था और सत्सार (1885) में “चिरंजीविनी” कहकर संबोधित किया था।
ताराबाई शिंदे को मुख्यधारा के इतिहास में वह जगह नहीं मिली जिसकी वह हकदार थीं, जिसकी बहुत सारी वजहें थीं। सबसे पहले तो वह एक निम्न मध्यम वर्गीय समुदाय से ताल्लुक रखती थीं जो पहले से ही हाशिए पर था। इनके पास कोई सामाजिक राजनीतिक संगठन या पद भी नहीं था जो इन्हें वह स्थान दिलवाता। इसके अलावा मुख्यधारा के नारीवाद में ऊंची जाति के पुरुषों को प्रमुखता से जगह मिली जबकि बहुजन महिलाओं के इतिहास को भुला दिया गय।
आज के समय में ताराबाई शिंदे का महत्त्व और प्रासंगिकता
ताराबाई शिंदे सिर्फ़ एक नाम नहीं है बल्कि भारत में दलित नारीवाद की नींव रखने वाली एक सामाजिक क्रांतिकारी थीं, जिनके सवाल आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। आज सोशल मीडिया के ज़माने में जब महिलाओं को खुलेआम कैरक्टर सर्टिफिकेट दिए जाते हैं, स्लट शेमिंग की जाती है, परंपरा और संस्कृति के नाम पर डबल स्टैंडर्ड लागू किए जाते हैं।
ऐसे में ताराबाई शिंदे और भी प्रासंगिक हो जाती हैं। आज भी जबकि धर्म और परम्परा के नाम पर महिलाओं को नियंत्रित किया जाता है तो इनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए ताराबाई शिंदे की किताब स्त्री पुरुष तुलना के सवाल मुखरता से अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराते हैं। संविधान में समानता का अधिकार मिलने के बावजूद जब तक समाज सभी जाति, धर्म और जेंडर्स को समान नहीं समझता तब तक भेदभाव और अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए ताराबाई शिंदे प्रेरणा का काम करती रहेंगी।
© प्रीति खरवार




