परीक्षा कहानी का सारांश/ मूल भाव
प्रेमचन्द हिन्दी कथा साहित्य के लिए एक बहुत बड़ा नाम है। हिन्दी साहित्य को सुविधासम्पन्न वर्ग के मनोरंजन के स्थान पर सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का सबसे पहला प्रयास अपने साहित्य में प्रेमचन्द ने ही किया।
उनका वास्तविक नाम धनपत राय था और वे उर्दू में नवाबराय के नाम से लिखते थे। वे अंग्रेज़ी सरकार में शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। कहानी संकलन सोज़े वतन जब्त कर लिए जाने के बाद वे प्रेमचंद के नाम से हिंदी में लिखने लगे। उन्होंने लगभग तीन सौ कहानियां लिखीं, जो मान सरोवर के नाम से आठ भागों में संकलित हैं।
परीक्षा उनकी प्रारंभिक कहानियों में से एक है। इस कहानी में भी उनका आदर्शात्मक दृष्टिकोण देखा जा सकता है।इस कहानी के माध्यम से उन्होंने संदेश दिया है कि सच्चा व्यक्ति वही है जो दीन दुःखी और ज़रूरतमंद की सेवा करता है।
कहानी में देवगढ़ के नये दीवान की नियुक्ति इसी गुण के आधार पर होती है। रियासत देवगढ़ के दीवान सुजान सिंह जब राजा साहब के सामने अपने को सेवामुक्त करने का अनुरोध करते हैं तो राजा साहब कहते हैं कि जब तक उनके जैसा दूसरा ईमानदार और उदार व्यक्ति इस पद के लिए नहीं मिल जाता है, तब तक वे यह पद नहीं छोड़ सकते। राजा साहब ने दीवान जी पर ही नया दीवान ढूंढने की ज़िम्मेदारी डाल दी। अब नये दीवान के लिए अख़बारों में विज्ञापन दिये जाते हैं।
दीवान जी यह मानते हैं कि जो व्यक्ति दूसरों की तकलीफ़ को समझ कर उनकी सहायता करता है, वह सच्चा सेवक होता है। हर पद के लिए वे यही प्राथमिक योग्यता मानते हैं। दीवान सुजान सिंह ने अपना पद छोड़ने की इच्छा स्वयं प्रकट की यह उनका अद्वितीय त्याग था वरना तो लोग मरते दम तक अपना पद नहीं छोड़ना चाहते । यह भी कहानी में सीखने योग्य बात है।
जब नए दीवान की खोज की जाने लगी तो यह कहा गया कि इसके लिए ग्रेजुएट की आवश्यकता नहीं है लेकिन शरीर से हृष्ट-पुष्ट हो ।इसके बावजूद सबसे ज़्यादा ग्रेजुएट इस पद के लिए आए । अन्य अनेक प्रकार के लोग भी इस पद की दौड़ में हिस्सा लेने के लिए आये । एक महीने तक उन्हें रियासत में रह कर अपने आचरण की परीक्षा देनी थी, जिसे सूक्ष्मता से देखने की ज़िम्मेदारी दीवान सुजान सिंह की थी।
सभी लोग अपने आपको वैसा दिखा रहे थे- जैसे वे थे नहीं। देर तक सोने वाले जल्दी उठ रहे थे तो नशा करने वाले छुप कर बहुत कम ऐसा कर रहे थे। कोई पूजा कर रहा, कोई नमाज़ पढ़ रहा। कहने का मतलब सभी अपने को योग्यतम दिखाने की होड़ में लगे थे।
दीवान की ज़िम्मेदारी राज्य के लिए बहुत नाजुक होती है इसलिए दीवान जी चुपचाप अभ्यर्थियों के व्यवहार का सूक्ष्म निरीक्षण रहे थे। सभी अभ्यर्थियों के रहने, खाने ,खेलने-कूदने की समुचित व्यवस्था उनकी तरफ से कर दी गई थी। उन सभी में स्वार्थ की भावना थी और वे सब चाहते थे कि यह पद उन्हें ही मिले। एक बार दीवान बनने के बाद कौन क्या कहेगा!
एक दिन युवकों में हॉकी खेलने पर सहमति बनी। खूब दम लगा कर खेल कर सब थके हुए लौट रहे थे। गर्मी और पसीने से बेहाल! रास्ते में सब देखते हुए आगे बढ़ गये कि एक बड़े से नाले पर कीचड़ में एक किसान की बैलगाड़ी फंसी हुई है। सब थके हुए तो थे ही, अपने गुमान में भी थे। किसान की तरफ अपनत्व से देखना किसी ने भी ज़रूरी नहीं समझा। ऐसे में
एक नौजवान ने खुद चोटग्रस्त होने के बावजूद किसान की सहायता की और गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकाला। इसके लिए वह घुटनों तक कीचड़ में धंस गया। किसान और कोई नहीं रियासत के बूढ़े दीवान सुजान सिंह थे।
महीना पूरा हुआ। मैदान में दरबार लगा। सभी अभ्यर्थी अत्यंत उत्सुक थे कि किसके भाग्य का ताला खुलेगा? अनुभवी दीवान ने नये दीवान के तौर पर जानकीनाथ का नाम लिया। यह वही सेवाभावी युवक था। कर्मचारियों ने उसे सम्मान से तो शेष युवकों ने उसे ईर्ष्या से देखा।
परीक्षा कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने स्पष्ट शब्दों में बताया है कि किसी भी पद के लिए पहली योग्यता दया, उदारता और इसके लिए पहल करने की शक्ति है। किताबी ज्ञान, बड़ी बड़ी डिग्रियां सब बस प्रभावित करने के नकली तरीके हैं।
परीक्षा कहानी से हमें साहस, धैर्य और ज़रूरतमंद व्यक्तियों की बिना बहाने बनाये उसी समय सहायता करने का संदेश प्राप्त होता है । परीक्षा कहानी हमें यह साफ संदेश देती है कि बाहरी सौंदर्य और अर्जित ज्ञान तब काम आता है जब उस ज्ञान के साथ-साथ मनुष्य मानवीय गुणों से भी भरपूर हो। जब तक मनुष्य में दूसरों के प्रति दया और प्रेम नहीं है तब तक उसकी अन्य डिग्रियां बेमूल्य हैं।
बेशक ये बातें आज किताबी लगें (जिसके कारण नेताओं के गैरज़िम्मेदाराना काम देखे जा सकते हैं) लेकिन बेकार की नहीं हैं। सच्ची सेवा बिना मतलब साधे औरों के काम आना ही है और जहां उससे अपना स्वार्थ भी सध रहा हो, वहां तो ऐसा करना ही चाहिए।
© डॉ. संजू सदानीरा