पितृसत्ता को पोषित करते पारंपरिक भारतीय परिवार
भारतीय परिवार पूरी तरह से महिला के मुफ्त और आभारहीन (थैंकलेस) कामों पर टिके हैं। कोई महिला घर के बाहर या भीतर आर्थिक रूप से कुछ हासिल हो जाने वाले श्रम करे या न करे, घर के तमाम कामों की जिम्मेदारी उसी पर होती है। उस पर अगर वह कमाती है तो परिवार उस पर बहुत बुरी तरह निर्भर है,जिस अनदेखा भी लगातार किया जाता है। जब कोई कहता है कि वह और उसकी पत्नी दोनों कमा कर घर का बोझ आधा-आधा बांट रहे हैं तो वह यह भूल जाता है कि यह तो सिर्फ़ खर्च की बात हुई ।
इस आधार पर पति जहां पचास प्रतिशत दे रहा है घर चलाने के लिए, वहीं पत्नी डेढ़ सौ प्रतिशत दे रही है क्योंकि घर,रसोई,साफ -सफाई का और रखरखाव का सौ प्रतिशत तो वही कर रही है। कोई कहे कि वह भी कुछ-कुछ करता रहता है बीच-बीच में तो वह प्रतिशत निकाल ले। किसी ने सही कहा है कि एवरी वूमन इस वर्किंग वूमन, ए फ्यू आर सैलरीड।
कोई लड़की उम्र भर कुछ नहीं भी करे और ससुराल जाकर ,प्रसव पीड़ा झेल कर बच्चों को जन्म दे दिया,उनको पाल-पोस दिया तो भी सामाजिक रूप से यह उसका बहुत बड़ा योगदान है। इस रूप में कोई भी बहन,बेटी,बहू बेकार नहीं है। (सेरोगेसी का नाम तो सुना होगा आप लोगों ने! घर के मेंटेनेंस का भुगतान भी कुछ देशों में शुरू हुआ है)।
किसी प्रियजन ने मुझे एक बार कहा कि आपकी तो निभ गई,बेटी की कैसे निभेगी,उसे घर का काम सिखाइए। उनके अनुसार मैं तो बिना मेहनत के पार कर गयी गृहस्थी! उनसे और बाकी सभी से मेरा कहना है कि मेरी ही नहीं बल्कि किसी भी औरत की ऐसे ही नहीं निभी है कहीं भी, किसी भी घर में। निभी है तो बस मर्दों की। सदियों से मर्दों की ज़िंदगी बिना अपने जीवन काल में एक बार भी झाड़ू,बेलन, कपड़े धोने की ब्रश और बर्तन साफ करने के स्क्रबर को छुए निकल गई ।
मेरा निजी ऑब्जर्वेशन है कि मर्द चाहे मामूली पढ़ा-लिखा हो, व्यक्तित्व के नाम पर कोई उल्लेखनीय बात न हो, कमाई के मामले में भी झंडे न गाड़ रहा हो लेकिन वह इमरजेंसी में भी अपना खाना नहीं बना सकता, अपने बर्तन नहीं धो सकता, अपने घर में झाडू नहीं लगा सकता।इन कामों के लिए उसे अपनी भाभी,बहन या अन्य रिश्तेदार चाहिए।यही पितृसत्ता है कि कैसा भी पुरुष हो, उसकी निभ जाएगी जबकि कितनी भी उच्च शिक्षित, कला विद और सुदर्शन व्यक्तित्व की महिला हो -उसकी बिना काम किये नहीं निभेगी।
सिलाई, कढ़ाई, बुनाई सबको लड़कियों से जोड़ दिया जाना भी टॉक्सिक ही है। औरतें अगर अपने कपड़े किसी से ठीक करवाये तो अजीब,मर्द करवाये तो यह उनका हक़! एक अर्थ में कहा जाए तो भारतीय मर्द परजीवी हैं,जो महिलाओं के मुफ्त घरेलू श्रम पर निर्भर हैं। विक्रम बेताल की कहानी की तरह महिलाओं के कंधों पर टिके बेताल!
ऐसी (अ) व्यवस्था जितनी जल्दी ध्वस्त हो,उतना समाज का भला हो!
पितृसत्तात्मक समाज निर्माण में पुरूषों के हाथ सत्ता सुख रहा,जिसका उन्होंने भरपूर फायदा उठाया और महिलाएं शोषण का शिकार होती रही और विभिन्न रिपोर्ट्स के आधार पर कहा जा रहा है कि लैंगिक समानता पर यदि इसी गति से काम होता रहा तो एक सौ सत्तर साल बाद समानता का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।
कितना अजीब लगता है न, जिस घर की नेम प्लेट उस घर की किसी औरत के नाम से नहीं,उनकी पूरी उम्र उस घर को मेंटेन रखने में खप जाती है। जिसने कभी सब्जी काटी नहीं, उसके हलक से बढ़िया सब्जी बिना रोटी नीचे नहीं उतरती। जिसने सोकर उठने पर कभी अपना बिस्तर सही नहीं किया,वह घर की औरतों को आलसी कह देते हैं।
पत्नी मायके गयी है तो साठ – सत्तर साल की मां रोटियां पका रही है,बेटे-पोते नहीं बना सकते।ऊपर से बेचारे और!!!
लोगों को उस घर के लड़कों पर तरस आ जाता है जहां कई दिनों से घर की औरत बाहर गयी हुई हो। पड़ोसी भी खाने को पूछ लेते हैं लेकिन यही बात किसी लड़की के मामले में लागू नहीं है क्योंकि वो तो लड़की है,उसे तो बनाना आना ही चाहिए। तीस साल का जवान लड़का खाना बनाना न जाने तो यह मजबूर है और पंद्रह साल की लड़की ने जाने तो वह आलसी!!!
जिस घर की महिलाएं पितृसत्ता की “आदर्श गुलाम” नहीं हैं,उस घर के लोगों को लगता है कि उनका शोषण हो रहा है जबकि हकीकत बात यह है कि जिस दिन औरतों ने चारदीवारी से घिरी इस घरेलू सहायिका की ज़िंदगी से तौबा कर ली, पितृसत्ता के ये आदर्श आशियाने धराशाई हो जाएंगे। घरेलू सहायिका के लिए भी औरतों का मजाक बनाया जाता है।पहली बात तो वे कमा कर खा रही हैं, वाजिब भुगतान और सम्मान पर उनका पूरा हक़ है, दूसरे अगर घर का हर व्यस्क पुरुष घर के काम करे तो किसी सहायिका की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी,न महिलाओं पर उनके शोषण का आरोप लगेगा।
औरतों की आलसी प्रवृत्ति पर रोष व्यक्त करते मर्दों से ज्यादा फर्जी और कोई नहीं होता। कायदे से तो बूढ़ों, बच्चों, बीमार और विकलांग के अलावा सभी को अपना – अपना काम करना आना चाहिए।जिसे रोटी खानी आती है,उसे रोटी पकाना भी आना चाहिए,जिस घर में रहें, उसे साफ-सुथरा रखना किसी एक अकेली या सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी नहीं है।
वर्तमान विवाह व्यवस्था इस पितृसत्तात्मक ढांचे को बनाये रखने का सबसे मजबूत स्तंभ है। संविधान में जहां हम सभी नागरिक हैं, वहीं समाज में औरत जात,मर्द जात में बांट दिया गया है। संविधान में नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य है, जबकि समाज में अधिकतम अधिकार मर्दों के पास और कर्तव्य महिलाओं के पास हैं। जो इन बातों को पकड़ जाते हैं – वे लोग इसके खिलाफ होते चले जाते हैं,बाकी के लोग लकीर के फकीर बने रहते हैं। मर्दों को तो लकीर का फकीर बने रहने के बहुत सारे फायदे मिलते हैं।
तमाम घरेलू श्रमों से निजात, विदाई जैसी कुप्रथा से मुक्त एक स्वतंत्र नागरिक की हैसियत से जिंदगी जीने का मौका!दूसरी तरफ यही व्यवस्था लड़कियों को देती है खुशी-खुशी दोयम दर्जे का नागरिक बने रहने की ट्रेनिंग ! एक जगह से दूसरी जगह का विस्थापन, प्रसव और तमाम अनपेड घरेलू श्रम! पीढ़ी दर पीढ़ी का यह प्रशिक्षण एक दिन महिलाओं को इस व्यवस्था को एकमात्र सत्य मानने पर मजबूर कर देता है।
कभी कभी विचार आता है कि पशु ही नहीं ,घर के बर्तन भी लड़कियों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। गाय के द्वारा बछड़े के बजाय बछड़ी को जन्म दिये जाने पर पशु पालक को अधिक खुशी होती है। घर के किसी बर्तन में क्या रखा जाएगा, कितना रखा जाएगा – यह तय करना ज्यादा आसान है,इसकी तुलना में औरत के शरीर में मौजूद बच्चेदानी या कोख में वह गर्भधारण करे या नहीं,कितनी बार करे,कब करे – इस बात का उसे अधिकार आज भी पूरी तरह से नहीं है।
कौमार्य,शील भंग जैसे अमानवीय शब्दों पर फिर कभी। अभी इस पर इतना ही कि घर के मर्द स्नानघर से सीधे अंडरवियर में सबके सामने बाहर आ सकते हैं लेकिन घर की औरतों की साड़ी का पल्लू सर से खिसकने पर घर में बवाल हो सकता है।
इतनी-इतनी बेजा सुविधाएं पाकर लड़कियों को आचार संहिता सिखाने का जन्मजात आरक्षण हर जाति के मर्दों को हासिल है,सवर्ण मर्दों को थोड़ा ज्यादा!
इस पर बात होनी चाहिए। समान नागरिक संहिता सिर्फ दूसरे धर्मों के लिए नहीं बल्कि अपनी जाति, धर्म और सबसे ज्यादा अपने घर की महिलाओं के लिए लागू कीजिए।
©डॉ. संजू सदानीरा