“प्रेत का बयान कविता एक तीखा सामाजिक व्यंग्य है” कथन की समीक्षा
प्रेत का बयान कविता प्रगतिवाद के प्रतिनिधि कवि नागार्जुन की एक अत्यंत प्रसिद्ध कविता है। प्रेत का बयान कविता न सिर्फ़ प्रतिवाद बल्कि हाशिए के लोगों के बीच एक ज़रूरी बात है। हिंदी की मार्मिक कविताओं में प्रेत का बयान कविता को शुमार किया जाता है।
इस कविता में स्वाधीन भारत की अनेक समस्याओं में से एक भुखमरी का चित्रण किया गया है। अभाव, गरीबी, असहायता और संस्थागत बदहाली इस कविता के मूल विषय हैं।
प्रेत का बयान कविता में नागार्जुन ने प्राइमरी स्कूल के एक अल्प वेतन भोगी मास्टर के माध्यम से समाज के उस वर्ग से हमारा यथार्थ परिचय कराया है जो अपने अल्प वेतन से भी लंबे समय तक वंचित रह जाने के कारण फ़ाकाकशी के लिए मजबूर है।
ऐसे लोग एक दो नहीं पूरी तादाद में हमारे आसपास हैं जो परिवार पालने का एकमात्र माध्यम होने के बावजूद नौकरशाही और भ्रष्ट सरकारी तंत्र की स्वार्थपरक नीतियों का शिकार होकर अपनी आंखों के सामने अपने परिवार के सदस्यों को भूख, लाचारी, गरीबी और बीमारी से धीरे-धीरे घुल कर मरते देखने को विवश हैं।
कविता आज के आधुनिक भारत की उन सामाजिक विद्रूपताओं का जीवंत दस्तावेज पेश करती है जो आज़ादी के बाद घटने के बजाय और विकराल रूप अख़्तियार कर लेती हैं। प्रेत का बयान कविता उस सरकारी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है, जहां सरकार के आयोजनों पर पानी की तरह बहाने के लिए पैसा है लेकिन मूलभूत सुविधाओं के नाम पर सन्नाटा छा जाता है। जहां धार्मिक आयोजनों के लिए हर समय फंड होता है लेकिन वाजिब मजदूरी मांगने पर झिड़क दिया जाता है।
देश आज़ाद तो हो गया लेकिन आज़ादी के लिए सर्वस्व अर्पित कर देने वाले देशवासी ही इससे वंचित रह गए। विभिन्न प्रकार की शारीरिक बीमारियों का तो चिकित्सकीय खोजों ने हल कर दिया लेकिन छुआछूत, आर्थिक असमानता, धनी और शिक्षित वर्ग द्वारा निर्धन और अशिक्षित वर्ग पर किए जाने वाले अमानवीय अत्याचार जैसी सामाजिक बुराइयां कम होने के बजाय दिनों दिन बढ़ती गई। छोटी-मोटी नौकरी वालों का बड़ी बीमारी में बेहाल होना इस व्यवस्था की असफलता को दर्शाता है।
पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि कैसे सरकारें भूख से मौतों को पेट दर्द से मौत बता कर बेशर्मी से पल्ला झाड़ लेती है। चाहे कुछ सालों पहले राजस्थान में सहरिया जनजाति का मामला हो या बिहार में लीची खाने के बाद बच्चों की मौतें! सब लीपापोती की कवायद करते हैं । यहां तक कि भुक्तभोगी भी अपना असली हाल बताते डरते हैं।
मृत मास्टर का प्रेत समाज के उच्च वर्गों द्वारा दिए गए मीठे आश्वासनों से इतना भ्रमित है कि मृत्यु के देवता के समक्ष अपनी मौत का कारण भुखमरी को न मानकर पेचिश नामक बीमारी को मानता है।
कुल मिलाकर कविता संवेदनशील इंसान की संवेदना पर एक गहरा और अमिट प्रभाव छोड़ने में सफल होती है । इसके साथ ही नागार्जुन ने पूंजीपतियों, धनाढ्य वर्ग और राजनीतिक कुचक्र में जनता को भरमाये रखने वाले स्वार्थी नेताओं को भी प्रकारांतर से निशाना बनाया है।
प्रेत का बयान कविता का मूल उद्देश्य समाज के वंचित वर्ग के प्रति हमारी संवेदनाओं और सहानुभूति को जागृत करना है। निम्न आय वर्ग के लोगों की घरेलू स्थिति की पक्की तस्वीर प्रस्तुत करने वाली प्रेत का बयान कविता असरदार तो है ही प्रश्न भी करती है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
प्रेत का बयान -(नागार्जुन)
“ओ रे प्रेत-”
कडककर बोले नरक के मालिक यमराज
-“सच – सच बतला !
कैसे मरा तू ?
भूख से , अकाल से ?
बुखार कालाजार से ?
पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ?
कैसे मरा तू , सच -सच बतला !”
खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़
काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा
नचाकर लंबे चमचों – सा पंचगुरा हाथ
रूखी – पतली किट – किट आवाज़ में
प्रेत ने जवाब दिया –
” महाराज !
सच – सच कहूँगा
झूठ नहीं बोलूँगा
नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के
पूर्णिया जिला है , सूबा बिहार के सिवान पर
थाना धमदाहा ,बस्ती रुपउली
जाति का कायस्थ
उमर कुछ अधिक पचपन साल की
पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था
-“किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको
सावधान महाराज ,
नाम नहीं लीजिएगा
हमारे समक्ष फिर कभी भूख का !!”
निकल गया भाप आवेग का
तदनंतर शांत – स्तंभित स्वर में प्रेत बोला –
“जहाँ तक मेरा अपना सम्बन्ध है
सुनिए महाराज ,
तनिक भी पीर नहीं
दुःख नहीं , दुविधा नहीं
सरलतापूर्वक निकले थे प्राण
सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला ..”
सुनकर दहाड़
स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के
भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षक प्रेत की
रह गए निरूत्तर
महामहिम नर्केश्वर |
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