मजदूर दिवस 1 मई 2025: इतिहास, महत्त्व, भारत में स्थिति और महिलाओं की भूमिका
हर साल मजदूर दिवस 1 मई को दुनियाभर में मनाया जाता है। इसे मई दिवस, अंतर्राष्ट्रीय कामगार दिवस या श्रमिक दिवस के नाम से भी जाना जाता है। यह एक तारीख़ ही नहीं बल्कि उन अनगिनत मजदूरों की आवाज़ है जिन्होंने अपने खून-पसीने से इसकी नींव रखी। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार आज भी दुनिया में लगभग 3.3 बिलियन श्रमिक ऐसे हैं जो असुरक्षित नौकरी में कम वेतन और कार्यस्थल पर शोषण का शिकार होते हैं।
यह दिन उन सभी के लिए सुरक्षित, स्वस्थ और गरिमापूर्ण कार्यस्थल को सुनिश्चित करने के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। जब हम मजदूर की बात करते हैं तो हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इसमें सिर्फ़ मजदूर वर्ग नहीं बल्कि सभी वर्ग और सभी जेंडर के नौकरीपेशा व्यक्ति शामिल हैं।
मजदूर दिवस 1 मई को ही क्यों मनाया जाता है?
औपनिवेशिक शासन के दौर में दुनिया के ज़्यादातर देशों में मजदूरों की स्थिति बेहद दयनीय थी। इन्हें अमानवीय परिस्थितियों में लगातार बिना रुके काम करना पड़ता था। काम के घंटों को लेकर भी कहीं कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं था, इसलिए इन पर काम का अत्यधिक बोझ था जिससे सेहत पर बुरा असर पड़ता था।
इसी बीच 1886 में शिकागो के हे मार्केट में काम के घंटे 8 करने की मांग करते हुए मजदूरों ने आंदोलन किया, जिसमें बहुत सारे मजदूरों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इस घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा और 1889 में पेरिस में हुए दूसरे अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में मजदूरों के बलिदान के प्रतीक के तौर पर 1 मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई। इस प्रकार यह दिन मजदूरों के अधिकारों और सामाजिक न्याय का प्रतीक बन गया और तब से लेकर अब तक हर साल पूरी दुनिया में 1 मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारत में मजदूर दिवस का इतिहास
भारत में मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत चेन्नई में वामपंथी नेता सिंगारवेलु चेट्टियार ने 1923 में की। मद्रास हाईकोर्ट के सामने पहली बार मजदूर दिवस के उपलक्ष्य में सभा आयोजित की गई, इसमें उनके लिए अधिकारों की मांग की गई। इसी सभा में लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान के द्वारा देश में पहली बार मजदूर दिवस या मई दिवस मनाया गया था और पहली बार वामपंथी आंदोलन के प्रतीक लाल झंडे का इस्तेमाल किया गया था। इसके साथ ही 1 मई को राष्ट्रीय अवकाश घोषित करने का भी प्रस्ताव पारित किया गया।
हालांकि मजदूर दिवस को अभी तक राष्ट्रीय अवकाश के तौर पर घोषित नहीं किया गया है, लेकिन राज्य स्तर पर असम, आंध्र प्रदेश, बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, मणिपुर, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और बिहार में 1 मई को मजदूर दिवस के अवसर पर सार्वजनिक अवकाश रहता है। इसके अलावा भारतीय रिज़र्व बैंक के दिशा निर्देशों के अनुसार एक मई को इन सभी राज्यों में बैंक भी बंद रहते हैं जबकि नेट बैंकिंग, यूपीआई और एटीएम जैसी डिजिटल सेवाएं इस दौरान ग्राहकों के लिए उपलब्ध रहती हैं।
आंकड़ों की बात करें तो भारत के 50 करोड़ श्रमिकों में से लगभग 90% से अधिक आज भी अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इसमें इन्हें किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, वेतन और स्थायी नौकरी की गारंटी नहीं होती है। हालांकि सरकार ने श्रम संहिता 2020 के जरिए सुधार की पहल की है लेकिन ट्रेड यूनियनों ने इसे श्रमिकों के हितों के ख़िलाफ़ बताया है।
मजदूर दिवस और महिलाएं
आज भी जब हम मजदूरों की बात करते हैं तो ज़हन में अक्सर पुरुष मजदूर का ही चेहरा उभरता है जबकि इसमें महिलाओं की भागीदारी भी कम नहीं है। खेत-खलिहान हो या खदान, ईंट भट्ठे, फैक्ट्री, इमारत और घरेलू कामगार महिलाएं हर जगह आसानी से देखी जा सकती हैं। इसके बावजूद जब मजदूरों के हितों की बात की जाती है तो इसमें महिलाओं की ज़रूरतों को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के आंकड़ों के अनुसार भारत में महिला श्रमिकों को पुरुषों की तुलना में औसतन 20 फीसद कम वेतन मिलता है। इसके अलावा उन्हें पीरियड लीव, मातृत्व लाभ, स्वास्थ्य सुविधाएं, सुरक्षा जैसे बुनियादी अधिकार भी आमतौर पर नहीं मिल पाती हैं और जब महामारी या किसी भी तरह का आर्थिक संकट आता है तो महिला श्रमिकों की नौकरी छूट जाने का जोख़िम सबसे ज़्यादा होता है।
भारत की पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की वजह से घरेलू अवैतनिक कामों की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं पर ही डाल दी जाती है। ऑक्सफैम और दूसरे रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय महिलाओं को रोजाना औसतन 5-6 घंटे अवैतनिक घरेलू और देखभाल कामों के लिए देना पड़ता है। इस प्रकार महिला श्रमिकों का दोहरा शोषण होता है और इस पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया जाता है। जब हम मजदूरों के काम के घंटों की बात करते हैं तो यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इसमें वैतनिक और अवैतनिक दोनों तरह के कामों को शामिल किया जाए, जिससे महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और दोहरे शोषण को काम किया जा सके।
आगे का रास्ता
आज की तकनीकी दुनिया जब गिग इकॉनमी और डिजिटलाइजेशन की तरफ तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में डिलीवरी पर्सन, कैब ड्राइवर्स, फ्रीलांस वर्कर्स को नई-नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। काम के अनियमित घंटे, अनिश्चित आय के साथ ही इनके पास कोई सामाजिक सुरक्षा या स्वास्थ्य सुविधा नहीं उपलब्ध कराई जाती। इस वजह से इन पर काम का अत्यधिक दबाव बना रहता है जो अनेक तरह की शारीरिक और मानसिक बीमारियों का जोख़िम बढ़ा देता है। सरकार की श्रम पोर्टल पहल स्वागत योग्य है, जिसका उद्देश्य असंगठित श्रमिकों को पंजीकृत कर सामाजिक सुरक्षा देना है। लेकिन इनका प्रभाव सीमित है साथ ही गांवों तथा महिलाओं तक पहुंच न के बराबर है।
मजदूर दिवस सरकार, निजी संस्थानों और सेवा प्रदाताओं के लिए एक मौका है आत्मचिंतन और आत्म विश्लेषण का। यह दिन याद दिलाता है कि सभी को गरिमापूर्ण और स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है। यह दिन यह भी याद दिलाता है कि वर्क लाइफ बैलेंस को बनाए रखना कितना ज़रूरी है।
आज 8 घंटे का कार्य दिवस, साप्ताहिक छुट्टी और न्यूनतम वेतन जैसी सुविधाएं मजदूरों के पीढ़ियों के संघर्ष और त्याग की वजह से ही हासिल हो पाई हैं, हालांकि कितने फ़ीसद लोगों को हासिल हो पाई हैं, यह अभी भी सोचने का विषय है। जब तक हर कर्मचारी खासकर महिलाओं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को समान अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन और सुरक्षा नहीं मिलती तब तक 1 मई मजदूर दिवस की ज़रूरत और प्रासंगिकता बनी रहेगी।
© प्रीति खरवार
सोर्स लिंक..
https://en.wikipedia.org/wiki/International_Workers%27_Day