महाभोज उपन्यास का सारांश अथवा मूल भाव

महाभोज उपन्यास का सारांश अथवा मूल भाव

 

महाभोज मन्नू भंडारी द्वारा रचित एक बेहद महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। हिंदी साहित्य में इससे बेहतरीन राजनीतिक उपन्यास दुर्लभ है। महाभोज में भारतीय राजनीति का एकदम असली चेहरा अपनी पूरी नग्नता के साथ दिखाई देता है। एक-एक राजनीतिक दल की सत्तापरायणता, पार्टी के शीर्ष नेताओं का पद मोह, ऊंची- ऊंची बातें करने के पीछे के धत्कर्म, अपनी जीत के लिए इंसानी जान की कीमत नगण्य समझना- सब कुछ बेहद मार्मिक और मन में क्षोभ एवं क्रोध जगाने वाला है।

शोषण का विरोध करने वाले बिसू जैसे युवक की हत्या के ह्रदय विदारक दृश्य से शुरू होने वाला यह उपन्यास अंत तक पाठकों को न सिर्फ़ बांधे रखता है बल्कि उसी पीड़ा और संघर्ष की मन: स्थिति में छोड़ कर समाप्त होता है।

बिसू नाम के एक निडर और जुझारू दलित युवक की हत्या, हत्या के बाद की लीपापोती सब आसपास का देखा-जाना सच प्रतीत होता है।

एक निडर, सच्चे और ईमानदार युवक की हत्या करके तो दूसरे को हत्यारा साबित करके युवाओं की आवाज को निर्ममतापूर्वक कुचल देना अत्यंत त्रासदी पैदा करता है ।

गांव के दलितों को दबंगों – दलकों द्वारा दिन-दहाड़े जलाकर मार डालना और इस पर शहर में पत्ता भी न खड़कना शहरों की अंतरात्मा के मर जाने का प्रतीक है। फिर चुनाव आते ही हर बात को महत्त्व देना, मृतक व्यक्ति के परिजनों से मिलने जाना, उन्हीं की सहानुभूति पाकर क्लीन चिट ले लेने की चतुराई- पूरी तरह सच के करीब है।

चुनाव जीतने के लिए की जाने वाली रस्साकसी, चुनावी सभाओं के लिए पैसे देकर जुटाई जाने वाली भीड़ और पैसै को पानी की तरह बहाना- उपन्यास में यह सब कुछ पूरी असलियत के साथ उजागर किया गया है।

क़त्ल को आत्महत्या में कैसे बदला जा सकता है, हत्यारे को कैसे बचाया जा सकता है, निर्दोष को कैसे फंसाया जा सकता है – यह सारी प्रक्रिया डीआईजी सिन्हा , थानेदार, एस पी सक्सेना की तमाम कार्यवाहियों के माध्यम से मन्नू भंडारी जी ने बड़ी बारीकी से दिखाया है । थाने वालों का गरीबों से व्यवहार और उन्हीं का गुंडों और नेताओं के सामने हाथ बांधे हुक्म के लिए खड़े होना बड़ी ईमानदारी से दिखाया गया है।

बिसू को बेवजह चार सालों तक जेल में बंद रखना ,फिर एक दिन बिना सुनवाई के छोड़ देना (बंद रखने का कोई कारण न बताना) सब जैसे नया नहीं है। जेल में उसकी इतनी पिटाई कि रिहाई के बाद जगह-जगह गहरे ज़ख्मों के निशान, खून और मवाद का रिसना ,पेट ऐसा हो जाना कि दो टाइम खाना न खा सके-ये यातनाएं रोंगटे खड़े करने वाली है ।

बिसू और बिंदा जैसे लोगों की कहीं सुनवाई न होना उल्टा इस सफाई और क्रूरता से रास्ते से हटा दिया जाना डरावना है लेकिन झूठ नहीं। लोचन बाबू जैसे सिद्धांतवादी नेता का अलग-थलग पड़ जाना भी आश्चर्य जनक नहीं, हां निराशाजनक ज़रूर है। अपनी ही पार्टी को तोड़ने की जुगत भिड़ाने और इसके लिए सौदेबाजी समकालीन राजनीति का कच्चा चिट्ठा बयान करती है। जोड़-तोड़ करने वालों को पद मिल जाना भी आश्चर्यचकित नहीं करता ।

अख़बार के संपादकों का बिक जाना कितना बड़ा देशद्रोह है यह भी उपन्यासकार ने दिखाया है। मीडिया किस प्रकार जनमानस का ब्रेन वॉश सिर्फ अपने बिकाऊ होने के कारण कर सकता है -महाभोज उपन्यास में यह “मशाल” समाचार पत्र के संपादक दत्ता बाबू के माध्यम से स्पष्टतापूर्वक दिखाया गया है।

जिनकी अंतरात्मा बिकती नहीं उन्हें सक्सेना की तरह प्रमोशन से वंचित रहना पड़ता है और सस्पेंशन ऑर्डर झेलना पड़ता है। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री के हिसाब से चलने वाले सरकारी महकमे के हर अफसर किस गति से तरक्की पाते हैं इसे डीआईजी सिन्हा जैसे भ्रष्ट अफसर के माध्यम से देखा जा सकता है ।

राय साहब जैसे शातिर नेता कैसे बात-बात में गांधीवाद और गीता का उदाहरण देकर मन से सत्ता के भीषण लोलुप होते हैं, यह भी बहुत अच्छी तरह से उपन्यास में दिखाया गया है । राय साहब जैसों की सादगी के सामने कुटिलता पानी भरे! गरिमापूर्ण व्यक्तित्व, सादे रहन-सहन, सौम्य स्वभाव के पीछे की सच्चाई पाठकों को शायद आजीवन याद रहे और ऐसे चरित्रों से सावधान करे!

चरित्र चित्रण में मन्नू भंडारी की भाषा कई स्थानों पर चमत्कृत करती है तो कहीं हतप्रभ!

हर प्रकार से महाभोज उपन्यास भारतीय ही नहीं विश्व राजनीति का असली चेहरा दिखाता है। सच्चाई-ईमानदारी जहां जान की कीमत मांगती है वहीं कूटनीति, मैनिपुलेशन, लालच भरे प्रस्ताव कैसे सच को शीर्षासन पर लाकर खड़ा कर देते हैं – ये तमाम बातें महाभोज उपन्यास में पूरी बेबाकी के साथ दिखाई गयी हैं । मन्नू भंडारी का यह उपन्यास सचमुच कालजयी है। इस संसार में जब तक राज्य रहेंगे, शोषण और संघर्ष रहेगा – तब तक यह उपन्यास प्रासंगिक रहेगा।

(अंत में एसपी सक्सेना का सस्पेंड होने के बावजूद सरोहा में दलितों की हत्या और आगजनी के बिसू के जुटाए सबूतों को लेकर रुक्मी के साथ दिल्ली जाना व्यवस्था में संघर्ष के लिए एक गुंजाइश और ईमानदारी पर किंचित भरोसा जगाता है।)

© डॉ संजू सदानीरा

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Dr. Sanju Sadaneera

डॉ. संजू सदानीरा एक प्रतिष्ठित असिस्टेंट प्रोफेसर और हिंदी साहित्य विभाग की प्रमुख हैं।इन्हें अकादमिक क्षेत्र में बीस वर्षों से अधिक का समर्पित कार्यानुभव है। हिन्दी, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान विषयों में परास्नातक डॉ. संजू सदानीरा ने हिंदी साहित्य में नेट, जेआरएफ सहित अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के उपन्यासों पर शोध कार्य किया है। ये "Dr. Sanju Sadaneera" यूट्यूब चैनल के माध्यम से भी शिक्षा के प्रसार एवं सकारात्मक सामाजिक बदलाव हेतु सक्रिय हैं।

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