पुरस्कार कहानी का सारांश अथवा मूल भाव

पुरस्कार कहानी का सारांश अथवा मूल भाव

पुरस्कार कहानी जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित एक प्रसिद्ध कहानी है। जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के लिए कोई नया नाम नहीं हैं । वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे । उन्होंने स्वाध्याय से दर्शन, इतिहास और साहित्य का अनुशीलन किया और अपने लेखन से हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की।

नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध एवं कविता के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद ने अपनी लेखनी से पाठकों को एक समान आनंदित किया है। कंकाल, तितली और इरावती उनके उपन्यास हैं। प्रतिध्वनि, आंधी, इंद्रजाल, आकाशदीप इत्यादि उनके कहानी संग्रहों के नाम हैं। उर्वशी, आंसू, लहर उनके काव्य संग्रह हैं। उनके द्वारा रचित कामायनी आधुनिक काल का महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है।

पुरस्कार कहानी उनकी एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कहानी है। कहानी शुरू होती है राजघराने की उस परंपरा से जिसमें कौशल के राजा उस दिन कृषक बनकर इंद्र पूजन करते हैं।उस दिन नगर भर में उत्सव मनाया जाता है और गोठ (भोज) होती है। हर साल एक किसान की जमीन को राज्य की तरफ से चुनकर उस पर खेती की जाती है । उस खेत का उचित मूल्य राजा के द्वारा खेत के स्वामी को प्रदान कर दिया जाता है।

इस बार इसके लिए कथा नायिका मधूलिका के खेत का चयन किया गया है। बीजों का एक थाल लेकर कुमारी मधूलिका महाराज के साथ-साथ चल रही है। बीज बोते हुए महाराज जब हाथ बढ़ाते तब मधूलिका उनके सामने थाल कर देती । यह खेत मधूलिका का था इसलिए इस बार महाराज को बीज देने का सम्मान मधूलिका को मिला । कथा में बाद में पता चलेगा कि उसके पिता कौशल की तरफ से युद्ध में कौशल दिखाकर राज्य का मान कई बार बढ़ा चुके थे ।

अब मधूलिका अकेली है, अविवाहित भी है और सुंदर भी। आज के इस आयोजन में कौशेय (साधुओं वाले गेरुआ वस्त्र) उसके दुबले-पतले बदन पर सुशोभित हो रहे हैं। महाराज को बीज पकड़ाते हुए श्रम कणों से मधूलिका का मुख कुम्हला गया है, बालों की लटें उलझ गई है परंतु सम्मान और लज्जा से उसके होठों पर मंद मुस्कुराहट थिरक रही है । एक पल के लिए भी उसने बीज देने में शिथिलता नहीं की।

राजा के द्वारा हल चलाया जाना देखकर सभी लोग विस्मित और आश्चर्यचकित थे । यह लिखना इस बात का द्योतक है कि राजा का मेहनत करना तब भी अविश्वसनीय ही था।

इस दर्शक दीर्घा में मगध का राजकुमार अरुण भी सारे क्रियाकलापों के साथ-साथ कृषक युवती मधूलिका को गौर से देख रहा था। उसके चेहरे की कोमलता, सादगी और मासूमियत से वह हतप्रभ और उसके प्रति आकृष्ट हो उठा था।

पहला काम समाप्त हो गया। महाराज ने परंपरानुसार मधूलिका के खेत का पुरस्कार दिया जिसमें थाली में स्वर्ण मुद्राएं थी। वह एक प्रकार से राजकीय अनुग्रह था जिसको मधूलिका ने बड़े सम्मान के साथ अस्वीकृत कर दिया। उसने स्वर्ण मुद्राओं के थाल पर सादर माथा झुकाया और उन स्वर्ण मुद्राओं को महाराज पर उछाल दिया । यह एकदम आकस्मिक था। देखते ही महाराज की भवें तन गई।‌

मधूलिका ने विनम्रतापूर्वक बताया कि वह भूमि उसके दादा और पिता के समय से उनके पास है। उस जमीन को बेचना वह अपराध समझती है इसलिए वह मूल्य लेने में असमर्थ है । जैसा कि होता है राजा के मंत्री राजा से अधिक तत्पर होते हैं । मंत्री ने गुस्से में कहा यह धृष्टता बर्दाश्त नहीं की जाएगी ।

मधूलिका उन्हें कुछ कहने वाली होती है कि राजा के संकेत से मंत्री चुप हो जाते हैं और जब राजा को मंत्री से ही यह पता चलता है कि वाराणसी युद्ध के अन्यतम वीर सिंह मित्र की पुत्री ही आज उनके सामने खड़ी है तो वे आश्चर्यचकित होकर बताते हैं कि मगध के सामने कैसे उसके पिता ने कौशल की लाज रख ली थी । राजा भूमि के मनचाहे मूल्य को देना चाहकर भी नहीं दे पाते और न ही क्रोध कर पाते हैं। यहां कृषि भूमि का इस प्रकार अधिग्रहण बहुत अधिक खटकने वाला है।

कहानी में जयशंकर प्रसाद ने वातावरण निर्माण में अद्भुत ताजगी तो दिखाई है लेकिन बहुत बार यह अकल्पनीय लगती है विशेषकर जब बारिश की रात में मधूलिका टूटी-फूटी झोपड़ी में अकेली सुरक्षित दिखाई गई है। हैरानी हो रही है न? कहानी का वातावरण इस मामले में कल्पना से आविष्ट और यूटोपिया से भरा लगता है ।

अनाथ मधूलिका अपने खेत को गंवाने के बाद मजदूरी करके अपना भरण पोषण करते दिखाई गई है। उसने अपने खेत के बदले में स्वर्ण या अन्य कीमत अस्वीकार कर दी थी ।

समय का अंतराल होता है और एक बार फिर अरुण मधूलिका को दिखाई देता है जिसने उस उत्सव के बाद उसके प्रति उसी के समक्ष अपने प्रेम का इजहार किया था। मधूलिका ने यह कहकर राजकुमार को निराश कर दिया था कि राजकुमार के लिए राजकुमारी ही उचित रहेगी । आज वही राजकुमार उसे फिर से दिखा है जब अत्यधिक बरसात के बाद रात्रि को विश्राम के लिए वह जिस कुटिया का द्वारा खटखटाता है वह कुटिया मधूलिका की ही निकलती है ।

इधर राजकुमार के चले जाने के बाद अपने दुर्दिन में कई बार मधूलिका को अपने उस दिन के व्यवहार पर पछतावा भी हुआ था। वह सोचती थी कि काश उसने राजकुमार को इस तरह ठुकराया न होता तो आज उसकी दैन्य अवस्था न होती। राजकुमार के सामने आज उसकी यह स्थिति प्रकट थी जब झोपड़ी में शरण देने की स्थिति आई।

स्वयं राजकुमार भी मगध के विद्रोही और निर्वासित निवासी के तौर पर कोई बहुत अच्छी स्थिति में नहीं थे। दोनों की स्थितियां ऐसी थीं कि उस अंधकार की रात्रि में भी मधूलिका को हंसी आ गई और उसके मुख से निकल पड़ा- ”मगध के विद्रोही राजकुमार का स्वागत करे एक अनाथिनी कृषक बालिका, यह भी एक विडंबना है तो भी मैं स्वागत के लिए प्रस्तुत हूं।”

मधूलिका ने देखा कि इतनी विपन्न अवस्था के बावजूद राजकुमार के पास बहुत सारे सैनिक हैं । पूछने पर राजकुमार जवाब देता हैं कि बाहुबल ही तो वीरों की आजीविका है और ये उसके जीवन मरण के साथी हैं, इनको छोड़कर वह करता भी क्या ?

मधूलिका अभी तक राजकुमार के इरादों से अनजान है । अपनी कुटिया में राजकुमार को देखकर भविष्य के प्रति आशान्वित वो पूछती है कि क्यों,परिश्रम से कमाते और खाते ! क्या करना है सैनिकों का ? अब राजकुमार बताता है‌ कि वह बाहुबली है और नए राज्य की स्थापना करने की क्षमता रखता है । ऐसा कहते वक़्त उसकी आवाज में कंपन था क्योंकि अब जो प्रस्ताव वह रखने जा रहा था उसके लिए मधूलिका के सामने अरुण को बहुत साहस चाहिए था।

वह मधूलिका को धीरे-धीरे अपनी योजना समझाता है कि उसे राजा से अपनी कृषि भूमि के बदले दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि मांगनी है । उसके बाद अरुण और उसके सैनिक दुर्ग पर व्यूहरचना के तहत कब्जा करने की पूरी रणनीति समझा देते हैं । अरुण बार-बार उसे यह भरोसा दिलाता है कि कल की सुबह वह दुर्ग की साम्राज्ञी होगी।

समय अर्ध रात्रि का है लेकिन वह रुक नहीं पाती। महल के द्वार पर पहुंच जाती है और प्रतिहारी से कौशल नरेश से मिलवा देने की बात कहती है । आंखों में नींद लिये राजा लेटे हैं । उस समय प्रतिहारी ने जाकर निवेदन किया कि एक स्त्री प्रार्थना करने आई है।

तीन बरस पहले की मधूलिका को राजा भूल चुके हैं। परिचय देने पर उनको लगता है कि वह अब अपनी भूमि का मूल्य लेने आई है । जब वह कहती है कि नहीं ,उसे मूल्य नहीं चाहिए। इस पर राजा उसे जिस तरह मूर्ख कहकर संबोधित करते हैं वह राजा के क्रोधी स्वभाव का परिचायक है।

मधूलिका उनसे दुर्ग के पास की जमीन खेती करने के लिए मांगती है । पहले तो राजा सोच में पड़ गए लेकिन जब उसने कहा कि क्या वह निराश लौट जाए तो राजा तुरंत उसे वह महत्त्वपूर्ण ज़मीन देने को तैयार हो जाते हैं। कंटीली जमीन खेती के योग्य नहीं है का जवाब भी वह दे देती है कि अब उसको सहयोगी मिल गया है। वहां खेती करके वह अपना पेट पाल लेगी। राजा ने सिंहभूमि की कन्या को निराश नहीं किया और भरोसा करके उसे वह जमीन देनी मंजूर कर ली।

इस इतनी बड़ी सफलता के बावजूद अरुण की कल्याण कामना को लेकर वह सशंक है। उसे बार-बार लगता है कि सिर्फ सौ सैनिकों के साथ ऐसा भयानक खयाल ऐसा दुस्साहस करना कमाल ही है!

इधर अरुण अपने मिशन को अंजाम देने पहुंचा है । उधर मधूलिका का हृदय उतने अंधकार से घिर रहा है जितना इस समय उसके चारों तरफ छाया हुआ है। जितना रास्ता जटिल था उतनी ही उसकी सोच उसे मथे जा रही थी।

थोड़ी देर पहले जो सुख की कामना हो रही थी, थोड़ी ही देर बाद वह पश्चाताप में बदल गई । जो मधूलिका अरुण की सफलता के लिए मन ही मन कामना कर रही थी अचानक वह सोचने लगी कि अरुण को क्यों सफल होना चाहिए? श्रावस्ती दुर्गा एक विदेशी के अधिकार में क्यों जाए?

मगध कौशल का पुराना शत्रु है और उसके कारण शत्रु कौशल का सिर झुका दे ! कौशल के वीर सैनिक, रक्षक सिंहभूमि की पुत्री मधूलिका इसमें कैसे सहायक हो सकती है ! यहां प्रसाद जी ने उसकी कश्मकश को बहुत अच्छी तरह दिखाया है ।

इसके बाद मधुलिका की मन स्थिति अत्यंत डांवाडाल हो जाती है । उसके ऊपर अपराधबोध हावी हो जाता है। इस अंधकारमय रात में वह अपनी झोपड़ी तक न जाकर महल की तरफ चल पड़ी।

रास्ते में उसे गस्त पर निकले मशालधारी सैनिकों की एक टुकड़ी मिली जिसके आगे-आगे सेनापति चल रहे थे। उन्हें देखकर मधूलिका चिल्लाने लगी “ बांध लो, मुझे बांध लो। मेरी हत्या करो । मैंने अपराध ही ऐसा किया है।” सैनिकों ने उसको पगली समझ कर छोड़ देना चाहा। उस समय वह कठोर शब्दों में कहती है कि उसे राजा के पास ले चला जाए ।

सैनिकों के पूछने पर वह बताती है श्रावस्ती का दुर्ग दस्युओं के हाथों में जाने वाला है, दक्षिणी नाले के पार वे आक्रमण करेंगे। सेनापति को उसकी बात पर बहुत अधिक आश्चर्य होता है । वह जल्दी से उन्हें कुछ प्रबंध करने को कहती है।

सेनापति ने उसकी बात मानकर अस्सी सैनिकों को नाले की ओर धीरे-धीरे बढ़ने की आज्ञा दी । स्वयं वे शेष घुड़सवारों के साथ दुर्ग की ओर बढ़े। मधूलिका को एक अश्वारोही के साथ बांध दिया गया।

श्रावस्ती का दुर्ग कौशल राष्ट्र का केंद्र इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था। भिन्न राजवंशों ने उसके प्रत्येक भाग पर अधिकार जमा लिया था । अब वह केवल कुछ गांवों का अधिपति है फिर भी उसके साथ कौशल के अतीत की स्वर्ण गाथाएं लिपटी हुई हैं और यही लोगों की ईर्ष्या का कारण है।

सेनापति ने अश्वारोहियों को बिना कोई पदचाप किए चुपचाप अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए भेज दिया था और स्वयं सैनिकों सहित महल में पहुंचे । मधूलिका को खोल दिया गया।

राजा फिर से मधूलिका को देखकर सोचते हैं कि शायद उसकी जमीन नहीं दी गई और सेनापति के साथ वह अपना दुख सुनाने आई है लेकिन जब सेनापति ने बताया कि दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप से कोई गुप्त शत्रु आज रात में दुर्ग पर अधिकार कर लेने वाले थे और यह संदेश इस स्त्री ने ही ‌दिया तो महाराज के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।

महाराज, सेनापति और बाकी सैनिक कोई भी पूरी बात नहीं जानते। सबको लगता है कि सिंहमित्र की कन्या ने किसी माध्यम से इस राज को पता लगाया और राज्य को बचाया है। राजा एक बार फिर से कौशल को बचा लेने के लिए के अब सिंहमित्र की कन्या के प्रति आभारी हैं ।

अरुण को बंदी बना लिया गया है। सुबह-सुबह चारों तरफ जय घोष हो रहा है । दुर्ग रोशनी के आलोक में चमकता हुआ कौशल के गौरव को बढ़ा रहा है। सभी इसी बात से खुश है कि श्रावस्ती दुर्ग एक दस्यु के हाथ में जाने से बच गया ।

अब सभा बैठी। बंदी के रूप में अरुण को देखकर भीड़ एक साथ उसे मृत्युदंड देने पर आमादा थी। राजा ने मधूलिका से मुंहमांगा पुरस्कार लेने का आग्रह किया और यह घोषणा की कि राजा की स्वयं की जितनी खेती है वह सब वे मधूलिका को देते हैं ।

मधूलिका बड़े ही करूण भाव से अरुण की ओर देखती हैं और कहती है कि उसको कुछ नहीं चाहिए लेकिन राजा ने कहा कि यह नहीं हो सकता । उसे कुछ न कुछ पुरस्कार तो लेना ही पड़ेगा । मधूलिका जाकर अरुण के बगल में खड़ी हो जाती है और अपने लिए भी प्राण दंड की मांग करती है। इसी के साथ कहानी ख़त्म हो जाती है और देश प्रेम और व्यक्तिगत प्रेम के बीच एक विमर्श पाठकों के मन में छोड़ती है।

इस प्रकार इस कहानी के माध्यम से जयशंकर प्रसाद ने इतिहास, कल्पना, राजाओं का स्वभाव, युवा उत्साही युवराज का साहस, व्यक्तिगत प्रेम और देश प्रेम जैसे अनेक भावों का चित्रण मनोवैज्ञानिक प्रभाव के साथ किया है । मधूलिका के माध्यम से एक स्वाभिमानी, दृढ़ निश्चयी, मेहनती, साहसी, भावुक प्रेयसी और प्रतिबद्ध देश प्रेमी युवती का चित्रण किया गया है।

व्यक्तिगत प्रेम और देश प्रेम में से देश प्रेम (मातृभूमि के प्रति उत्तरदायित्व) का संदेश प्रसाद जी ने इस कहानी के केंद्र में रखा है।

©डॉ. संजू सदानीरा

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Dr. Sanju Sadaneera

डॉ. संजू सदानीरा एक प्रतिष्ठित असिस्टेंट प्रोफेसर और हिंदी साहित्य विभाग की प्रमुख हैं।इन्हें अकादमिक क्षेत्र में बीस वर्षों से अधिक का समर्पित कार्यानुभव है। हिन्दी, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान विषयों में परास्नातक डॉ. संजू सदानीरा ने हिंदी साहित्य में नेट, जेआरएफ सहित अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के उपन्यासों पर शोध कार्य किया है। ये "Dr. Sanju Sadaneera" यूट्यूब चैनल के माध्यम से भी शिक्षा के प्रसार एवं सकारात्मक सामाजिक बदलाव हेतु सक्रिय हैं।

2 thoughts on “पुरस्कार कहानी का सारांश अथवा मूल भाव”

  1. हिंदी साहित्य की चर्चा करते समय, मूल संवेदना का महत्व कोई बात नहीं है, बल्कि एक बहुत बड़ी बात है! Dr. Sanju Sadaneera जी के लेखों में हमेशा ही चुनौतियां होती हैं, जैसे कि महाभोज पर लघूत्तरात्मक प्रश्न या पुरस्कार कहानियाँ। ये लेख लिखने के लिए बहुत सारी शक्ति लगती है, जैसे कि हमें सोचने के लिए। लेकिन अंत में हमें यह समझना होता है कि सबसे महत्वपूर्ण वो है जो हम लोग अपने मन में रखते हैं, चाहे वह मूल संवेदना हो या कुछ और! 😉no, i’m not a human 来訪者 一覧

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