उसने कहा था कहानी की मूल संवेदना
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा लिखित उसने कहा था कहानी की मूल संवेदना निश्छल प्रेम, त्याग और कर्तव्यनिष्ठा की कहानी है। हिन्दी कहानियों से उसने कहा था का स्थान उच्चतम सोपान पर है। प्रेम व्यक्ति के प्रति,देश के प्रति और इंसानियत के प्रति जीवन को गरिमा प्रदान करता है। इस रूप में यह कहानी एक गरिमामयी रचना के तौर पर याद की जाती है,तो कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं।
कहानी की शुरूआत इस प्रेमकथा के नायक (लहना सिंह और नायिका (बाद में सूबेदारनी) की अमृतसर शहर में मुलाक़ात से होती है। 12 वर्ष का लहना सिंह अपने मामा के यहाँ आया हुआ है,जहाँ 8 साल की लड़की बाज़ार-दुकान में अक्सर मिल जाती है। शरारती लड़का उसे छेड़ते हुए रोज पूछता है कि, क्या उसकी कुड़माई (सगाई) हो गई और जवाब में वो रोज ‘धत्’ कहकर भाग जाती है। उम्मीद के विपरीत एक दिन प्रश्न का उत्तर वह ‘हाँ’ में देती है।
इसके बाद जिस मनोदशा में लड़के को घर पहुंचते कहानीकार ने दिखाया है, वह बिना कहे भी बहुत कुछ बयान करता है। एक खोमचे वाले की दिनभर की कमाई खोई,नहाकर लौटती हुई भक्त महिला से टकराकर अंधे की उपाधि पाई,एक कुत्ते पर पत्थर मारा,एक लड़के को नाली में धकेल दिया और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया।कहने का मतलब है कि लड़के की एकाग्रता और सुकून दोनों को ख़त्म होते दिखाकर कहानीकार ने लड़की के लिए उसके भीतर पल रहे अथाह प्रेम को अभिव्यंजित किया है।
समय बीतता जाता है,लड़का बालक से युवक में बदल चुका है और सेना में भर्ती हो गया है। परिस्थितियाँ ऐसी आईं कि सूबेदार के घर उसकी पत्नी से उसकी मुलाक़ात होती है और पता चलता है कि सूबेदारनी और कोई नहीं, वही लड़की है। सूबेदारनी उसको रोते हुए बताती है कि उसके सब बेटे असमय मर गए, बस यही एक बचा है जो अपने बाप के साथ फौज में भर्ती हो गया है। सूबेदारनी उसको याद दिलाती है कि एक बार उसने (लहना सिंह) ने अपनी जान पर खेलकर उनकी जान बचाई थी। वह आगे हाथ जोड़ते हुए लड़ाई मे ज़रूरत पड़ने पर अपने पति और बेटे की जान बचाने की प्रार्थना करती है।
कहानी के अगले हिस्से में लहनासिंह को एक चतुर सिपाही के रूप में दिखाया गया है,जो नकली लपटन साहब को पहचान जाता है और फौजियों को मरने से बचा लेता है। उसे थोड़ा बातूनी भी दिखाया गया है, जिसका नुकसान उठाना पड़ता है कि सारी अच्छी बातों के बावजूद नकली लपटन की गोली का शिकार होना पड़ता है।
खाई में ठंड है,दलदल (कीचड़) है और सूबेदारनी का बेटा बुखार से पीड़ित है।लहना सिंह उसकी जगह पहरा देता है, उसको अपना कम्बल देता है। यहाँ तक कि अपना कोट दे देता है। जर्मनों के साथ लड़ाई की आवाज दूर तक पहुंचने पर राहत गाड़ियां आती हैं। लहना सिंह दोनों बाप-बेटों को जबरदस्ती राहत गाड़ी में बिठाकर अस्पताल भेज देता है।लहना सिंह ख़ुद वहीं रह जाता है,जिसके पसली और जाँघ दोनों जगह गोलियां लगी हैं।उनको इलाज के लिए भेजने तक ही वह जबरदस्ती खड़ा रह पाता है।सबके जाते ही वह लेट जाता है। उसके घावों से इतना खून बह चुका है कि उसको मूर्छा आने लगती है और उसकी मृत्यु का समय आ जाता है।
जीवन की घटनाएँ आगे-पीछे होकर उसके मानस में चल रही हैं।अन्त में साथी वजीरा सिंह की जांघों पर सिर रखे उसकी सांसें थम जाती हैं। अगले दिन प्रेम के लिए दी गई उसकी जान अख़बार में युद्ध मे मरे एक सिपाही की खबर में बदल जाती है। इस तरह से उसने कहा था कहानी बिना शर्त के प्रेम की अलौकिक कहानी है,जिसमें नायक ने नायिका के वचन की पूर्ति सर्वस्व न्योछावर करके की। एक प्रकार से इस कहानी में ‘प्लेटोनिक लव’ को भी महसूस किया जा सकता है।
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© डॉक्टर संजू सदानीरा
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