कन्यादान कविता की मूल संवेदना

 कन्यादान कविता की मूल संवेदना

 

कन्यादान कविता ऋतुराज की एक अत्यंत लोकप्रिय और मर्मस्पर्शी कविता है। ऋतुराज समकालीन हिन्दी कविता के एक महत्त्वपूर्ण और जाने माने साहित्यकार हैं। एक मरणधर्मा और अन्य कविताएँ, अबेकस, पुल पर पानी और नीला मुखारविन्द इत्यादि इनके प्रमुख काव्य संकलन हैं। इन्हें मीरा पुरस्कार,बिहारी पुरस्कार, सोमदत्त पुरस्कार, सुधीन्द्र पुरस्कार और परिमल पुरस्कार समेत अनेक पुरस्कार उत्कृष्ट साहित्य लेखन हेतु प्रदान किये जा चुके हैं।

इस कविता का भाव सौन्दर्य अप्रतिम है। एक माँ व बेटी के बीच वार्तालप के माध्यम से कवि ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया है। किशोरी बेटी को विदा करते हुए माँ इस तरह हृदय विगलित है मानो वही उसकी एकमात्र पूंजी है! 

 माँ बेटी को आगाह कर रही है। माँ ने जीवन के सभी उतार-चढ़ाव देखें है इसलिए बेटी को सावधान करना बहुत ज़रूरी समझती है। उसे पता है कि वस्त्राभूषण से रीझकर औरत अपने अस्तित्व को भूल सकती है, तो वह बेटी को ऐसा न करने की सलाह देती है। 

बेटी अभी बहुत छोटी है,उसने दुनिया नहीं देखी है। बेटी की उम्र की तरह ही उसका अनुभव संसार भी अभी छोटा है। सुख को थोड़ा-थोड़ा पहचानती है,लेकिन दुःखों से पूर्णत: अपरिचित है। माँ पितृसत्तात्मक और पुरुष वर्चस्वयुक्त समाज की कठोर हक़ीक़त से परिचित है। वह बेटी को बताती है कि आग रोटी सेंकने के लिए और अपनी भूख मिटाने के लिए है न कि जलने के लिए। अर्थात् किसी भी तरह से अपनी रक्षा करना उसकी पहली ज़रूरत है।

स्वाभाविक मानवीय नरमी व स्नेह-व्यवहार तो माँ अपनी बेटी में चाहती है, लेकिन दब्बूपना, डरपोकपना, कायरता और परनिर्भरता नहीं! इसलिए वह बेटी को लड़की होने लेकिन लड़की जैसी न दिखने की हिदायत देती है। कहने का मतलब है कि प्रकृति प्रदत्त विभिन्नता के अतिरिक्त वह अपनी बेटी में कोई मूल्यगत अथवा सामाजिक अंतर नहीं देखना चाहती। गौरतलब बात है कि माँ स्वयं “क्रांतिकारी” नहीं है कि कन्या दान की प्रथा को ही खारिज़ कर दे,परंतु इतनी भोली भी नहीं कि विदाई का मतलब भी न समझे! ग्रामीण परिवेश की एक महिला की यह समझ सकारात्मक है। 

इस प्रकार ऋतुराज की कन्यादान कविता स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में एक शुरूआती क़दम मानी जा सकती है। यह कविता बताती है कि शोषण की श्रृंखलाओं में जकड़ी एक औरत जब जागरुक होती है तो अपनी भावी पीढ़ी को उस शोषण चक्र से मुक्त रखने की भरपूर चेष्टा करती है। 

 

© डॉ. संजू सदानीरा

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