चोर कहानी की मूल संवेदना
जैनेंद्र द्वारा रचित “चोर” एक मनोवैज्ञानिक कहानी है । जैनेंद्र मनोविश्लेषणात्मक एवं बाल मनोवैज्ञानिक कथाकार के रूप में अत्यंत चर्चित हैं। हिंदी कहानी को प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र ने बहुत अधिक प्रभावित किया है। मनोविश्लेषणात्मक कथाकारों में इनका स्थान अग्रणी है।
समीक्ष्य कहानी (चोर) जैनेंद्र की बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक चर्चित कहानी है। चोर कहानी में जैनेंद्र ने बच्चों के मन पर घरेलू वातावरण के असर का चित्रण बहुत गंभीरता से किया है। बच्चों के सामने जिन विषयों की बातचीत बराबर होती है, उन विषयों से संबंधित अन्य अनेक प्रकार की कल्पनाएं वे स्वयं ही कर लेते हैं।
सामाजिक परिदृश्य, मोहल्ले का माहौल एवं कामकाज निपटा कर बैठने वाली औरतों की आपसी बातचीत के माध्यम से वातावरण का मनोवैज्ञानिक एवं सजीव चित्रण कहानी में किया गया है। स्त्रियों और पुरुषों की सामान्य आदतों को कहानीकार ने बड़ी सहजता के साथ दर्शाया है। कथाकार का उद्देश्य रहा है उस परिवेश और बातचीत का बालक प्रद्युम्न के मन पर पड़ने वाला मनोवैज्ञानिक प्रभाव उकेरना।
प्रद्युम्न इस कहानी का मुख्य पात्र है। उसकी मां पड़ोसी महिलाओं के साथ खाली वक्त में बातचीत करती है। बातों का मुख्य विषय एक चोर है। उन सभी का अनुमान है कि मोहल्ले में उन दिनों एक चोर का आना-जाना बहुत बढ़ गया था। प्रद्युम्न की किताब में राक्षस की एक तस्वीर थी। चोर की भयंकर छवि चर्चा वाली सारी बातचीत से उसे लगने लगा कि चोर भी किताब वाले राक्षस की तरह भयानक शक्ल सूरत वाला क्रूर व्यक्ति होगा। बातों को आते जाते सुन सुन कर वह सुस्त रहने लगा। उसने घर के बाहर खेलने जाना एकदम से बंद कर दिया।
एक दिन पुलिस द्वारा पकड़े गए चोर को देखने के बाद उसका या भ्रम टूट जाता है। अब उसे पता चलता है कि चोर राक्षस जैसा नहीं बल्कि आम मनुष्यों जैसा होता है। बहुत दिनों तक प्रद्युम्न चोर की चर्चाएं सुन-सुन कर नींद, भूख और खेल जैसी चीजें भूल चुका था। चोर का डर उसके अंदर गहराई तक समा चुका था। अब सचमुच के चोर को देखकर जिस तरह से वह राहत महसूस करता है ,वह बहुत मनोवैज्ञानिक लगती है। अब उसे चोर का डर नहीं। उसकी सहजता लौट आई।
औरतों की परिवारिक बातचीत में भी मनोवैज्ञानिक पुट दिखाई देता है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जैनेंद्र ने चोर कहानी के माध्यम से बालमन, घरेलू औरतों की आम ज़िन्दगी और वातावरण के बीच के संबंधों को मनोवैज्ञानिकता के प्रकाश में सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है।
© डॉ. संजू सदानीरा
चोर कहानी- जैनेंद्र
घर में आठ बरस का प्रद्युम्न बड़ा ऊधमी है। किसी की नहीं सुनता और जिद पर आ जाय, तो पूछिए ही क्या । इधर कुछ दिनों से वह कुछ गुमसुम रहता है। ऊधम-दंगा भी कम हो गया है। जाने क्या बात उस के मन में बैठ गई है। शाम को स्कूल से आता है, तो दौड़ कर खेलने बाहर नहीं चला जाता, इस उस कमरे में ही दिखाई देता है। मैं परेशान हूँ। कहती हूँ, “क्या हुआ है प्रद्युम्न ?” तो सिर हिलाकर कह देता है, “कुछ भी नहीं।” खेलने क्यों नहीं गया ?”
“तो यों ही नहीं गया।” मैं समझती हूँ कि रूठा है। तब गोद में लेकर प्यार करती हूँ। पर वह बात भी नहीं है । अब सबकी अपनी-अपनी जगह शोभा है। बालक में बुद्धिमानी अच्छी नहीं लगती। उसमें बचपन चाहिए । पर प्रद्युम्न जो आठ वर्ष की उम्र में बुजुर्ग बन रहा है, सो मैं कैसे देखती रह जाऊँ? डपट कर कहा, “जाता क्यों नहीं खेलने ? साथी बच्चों में मन ही बहलेगा।”
डपटती हूँ, तो वह सचमुच चला जाता है। मैं डरती हूँ कि घर के बाहर इधर-ही-उधर तो वह नहीं भटक रहा है। पर नहीं, वह सीधा साथियों में जाता है और खेल कर काफी देर में लौटता है। एक बात देखती हूँ। शाम को निबट कर हम चार जनीं बैठ कर बात करती हैं, तो वह भी पास बैठा हुआ दिखाई देता है। वह कुछ नहीं बोलता, चुपचाप सुनता रहता है। मुझसे सटकर भी नहीं बैठता और न कभी गोद में लेटने की ही चेष्टा करता है। अपने अलग-अलग गुमसुम बैठा रहता है। आजकल दिन बड़े खराब हैं। गेहूँ ढाई सेर का भी मयस्सर नहीं है। दूध के दाम घोसी ने परसों से आठ आने सेर कर दिए हैं। शाक-भाजी के भाव में आने से कम की बात ही नहीं कीजिए । लौकी और कदू दोनों उन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं; पर अब उन्हीं के हुक्म से वही बनाती हूँ, क्योंकि वे चार आने में जो आ जाते हैं। शहरियों की मुसीबत, बहन कुछ न पूछो। मकान किराया है कि दम खुश्क करता है। ४०/- दे रही हूँ; पर मैं ही जानती हूँ कि कैसे गुजर होती है। मेहमान आए, तो बैठाने को जगह नहीं। यह मुई लड़ाई जाने कब बन्द होगी! आपस में हमारी ऐसी ही बातें हुआ करती हैं। सावित्री ने कहा, “अरे जी, तुमने सुना, कल हमारे पड़ोस में एक का ताला टूट गया ।”
गिरजा बोली, “यह न होगा, तो क्या होगा ? कुछ नुकसान तो नहीं हुआ ?”
सावित्री ने कहा, “यही खैर हुई। चौकीदार की लाठी की ठक-ठक सुनकर, कहते हैं, चोर भाग गया।”
सब्जामाला बोली, “मैंने तो लोहे के किवाड़ लगाने को कह दिया है। देखो न, उस रोज उनके यहाँ से कपड़े जेवर सब चला गया। और तो और बर्तन तक ले गए।” यह समाचार पुराना पड़ गया था; पर आज इस मौके पर वह फिर नया हो पाया। दुलारी बोली, “दूर क्यों जाओ, रात की बात मुमानीजी से ही न पूछो कि रह-रहकर कैसा खटका होता रहा और सबेरे देखते हैं, तो साफ निशान हैं कि किसी ने कुण्डे पर हाथ आजमाया है।” मुमानी इस मण्डली में कुछ नई हैं। शायद वजह यह भी हो कि वह अकेली मुसलमान है । लेकिन उनके कुण्डे की बात आई, तो उत्साह से उन्होंने पूरा बखान किया, “नवाब साहब आये न थे। दो का वक्त था । ए० आर० पी० के काम में उन्हें अक्सर देर हो जाती है। अब घर में हम सब जनीं अकेली। मर्द कोई भी नहीं । बहन, कुछ पूछो नहीं। खटखट सुन रही हैं; पर कुछ करते नहीं बनता। आपस में घुस फुस कर के रह जाती हैं और सबके धुकधुकी हो रही है। मैंने तो सबेरे ही कह दिया, या तो नौ बजे आ जाओ, नहीं तो मकान तब्दील करो । खुदा जाने, मैं तो नौ बजे किवाड़ बन्द कर लिया करूगी। मेरी बला से फिर वे कहीं रहें। सोएँ वहीं जाके अपने ए० आर० पी० में। खुदा कसम बहन, देर तक छत पर से कई क़दमों के चलने की आहट आती रही । यह चोर…।”
जैनमती बोली, “क्यों, बशीर मियाँ घर में नहीं थे क्या ?” मुमानीजान ने कहा, “उनकी भली चलाई। नई शादी हुई है, तो उन्हें क्या होश है ? दोनों को अपना कमरा है और बस। बाकी उनकी तरफ से सब कुछ क्यों न लुट जाय । अब सच तो यह है बहन कि चोर का होल मुझे भी था। इसी से बोल नहीं रही थी, चुप थी।” रूपवती बोली, “औरों की बात तो नहीं कहती, नीम पर चढ़कर इनके घर तो मैं कहो जब पहुँच जाऊँ।” सब जनीं इस पर बहुत खुश हुई और कहने लगी कि यह बात पते की है। मेरे मन में खुद इस कटे नीम की बात कई बार आई थी। सोचती थी म्यूनिसिपलिटी में लिखकर कटवा दूं। इस मरे पेड़ को भी यहीं होना था। मैंने जैनमती की तरफ देखकर कहा” जीजी, बताओ क्या करूँ ? पेड़ है तो बड़े बेमौके, कोई चढ़कर आ सकता है। हमारा दिलीप ही रोज यहाँ से सड़क पर उतर जाता है। कहती हूँ, मानता ही नहीं।”
जीजी ने कहा, “तो उनसे कहा ?”
मैं बोली, “उनसे जब कहा, तो उन्होंने कौन-सा काम करके रखा। बोले- ‘नीम के पेड़ से ठण्डी हवा आती है ।’ मैंने कहा’ चोर जो आ सकता है ?? बोले ‘ज़रूर आ सकता है, इससे किवाड़ खुले रखा करो और वक्त-बे-वक्त के लिए दो-चार रोटियाँ भी बचा रखा करो। आए कोई, तो उसे खाने को तो मिल जाय। चोर बेचारा भूखा होता है।’ तब से जीजी, मैंने तो कान पकड़ा, जो कुछ कहूँ । सीधी की वह तो उल्टी लगाते हैं। जेठजी से कहना, वह कुछ इन्तजाम करदें, तो मुझे कल पड़ जाय । हर घड़ी दिल धुकधुक करता रहता है। बात यहाँ कर रही हूँ और मन”। क्या बजा होगा ?”
“नौ बज गया।” मैं घबरा कर बोली, “नौ !” सब जनीं मेरा तमाशा देखने लगीं। मैंने कहा, “मुझे जाने दो। चल प्रदुम्न, चलें।”
प्रद्युम्न पीछे की एक तरफ बैठा था। औरों के साथ के बच्चे सब सो गए थे। प्रद्युम्न बिल्कुल नहीं सोया था। इस वक्त भी जैसे वह यहाँ से उठना नहीं चाहता था ।
सब्जमाला ने उठती उठती का हाथ पकड़ कर मुझे बैठाल लिया और कहा, “लाला आ तो गए हैं।”
मैं और भी घबरा कर बोली, “आ गए हैं ?”
सब्ज़माला ने कहा, “वह देख, कमरे में बत्ती जल रही है।” यह कहकर उसने मुझे अंक में भर कर चूम लिया । इस सहेली की मैं यहाँ बात नहीं कर सकती। वह मुझ पर जबर्दस्ती करती है लेकिन इस जबर्दस्ती से ही मैं उसकी हूँ। बोली, “लाला थोड़ी देर अकेले रह लेंगे, तो क्या हो जायगा ? तुझे छोड़ कर खुद जो महीनों बाहर रहते हैं।”
मैंने कहा, “उन्होंने खाना नहीं खाया, जीजी ! मुझे जाने दो।”
“आप ले के खा लेंगे।” कहते हुए उसने मुझे जबरन बैठा लिया।
प्रद्युम्न अपनी जगह बराबर ध्यान लगाए बैठा था। खैर, मेरे बैठ जाने पर चोरी से हटकर चोरों की बात होने लगी। वे निर्दयी होते हैं, चालाक होते हैं, पास में कुछ न कुछ हथियार रखते हैं। इसी तरह बात आगे बढ़कर डाकू, जेलखाना, कालापानी, और फाँसी तक पहुँची। घड़ी ने दस बजाए, तब जाकर मेरा छुटकारा हुमा। और जनीं भी तब अपने घर गई। प्रद्युम्न उँगली पकड़े मेरे साथ आ गया।
प्रद्युम्न के बाबूजी लेटे हुए किताब पढ़ रहे थे। कहा, “पता है अब क्या बजा है ?”
मैंने टालते हुए कहा, “खाना खा लिया ?”
“खा लिया।”
वे नाराज थे। हों तो हों। मैं भी प्रद्युम्न को लिटा कर उसके बराबर लेट गई। उनसे बोली नहीं। वे भी किताब पढ़ते रहे। मुझे नींद नहीं आई थी; पर आँख बन्द किए लेटी थी। ऐसे समय प्रद्युम्न मेरी खाट से उठा और अपने बाबूजी के पास जाकर बोला, “बाबूजी !” चौंककर उन्होंने मुंह फेरा । प्रद्युम्न को पास खड़ा देखकर कहा, “आओ, प्रद्युम्न, मेरे पास सोओगे ?” बच्चा पास बैठ तो गया,लेटा नहीं। “क्यों, बैठे क्यों हो ? सो जाओ।” प्रद्युम्न ने कहा, “चोर रोशनी में नहीं आता, बाबूजी ?” उसके बाबूजी ने कहा, “नहीं, रोशनी में कोई चोर नहीं आता। और भाई, चोर भला कोई होता भी है ? सो जाओ।”
लेकिन प्रद्युम्न नहीं सोया। थोड़ी देर बाद उसने पूछा” अँधेरे में आता है ?” उसके बाबूजी ने कहा, “क्या बकते हो, सो जाओ।” और उसे जबर्दस्ती लिटा दिया और अपनी किताब खोल कर पढ़ने लगे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मुड़ कर देखा होगा कि प्रद्युम्न अब भी आँख फाड़े ऊपर देख रहा है, सोया नहीं है क्योंकि तभी मैंने सुना कि उन्होंने कहा, “अरे, अभी सोए नहीं तुम ?” कहकर उन्होंने किताब अलग रख दी और बटन दबा दिया। फिर प्रद्युम्न को छाती के पास खींच कर थपका थपका कर सुलाने लगे। ऐसे उन्हें थोड़ी देर में नींद आ गई। मैं नहीं सोई थी। इतने में देखती क्या हूँ कि अँधेरे में टटोल-टटोल कर प्रद्युम्न मेरी खाट पर आ गया।
मैंने उसे अपने में खींचकर फुसफुसाकर कहा, “बेटे, सो जाओ।” वह मेरे अंक में लगकर सोने की चेष्टा करने लगा। मैं थोड़ी-थोड़ी देर में उसके पपोटे देखती थी कि सो तो गया है न? मैंने कहा, “क्यो प्रद्युम्न, नींद नहीं आती ? क्या बात है।” देर साँस बाँधकर वह लेटा रहा। अन्त में वह रोक नहीं कुछ सका, एकाएक बोला, “भाभी, चोर कैसा होता है ?” । मैं सुनकर हैरत में रह गई। मैंने कहा, “अरे, वह सचमुच में कुछ थोड़े ही होता है। वह तो झूठ-मूठ की बात है।” “तो वह नहीं होता ?” मैंने कहा, “बिल्कुल नहीं होता।” सुनकर वह चुप रह गया। मैंने कहा, “सो जाओ, भैया !” ।
उसने जोर से कहा, “होता है।” मैं हँसकर बोली, “तो बताओ, कैसा होता है ?”
बोला, “मेरी किताब में राक्षस की तस्वीर है, वैसा होता है । दो सींग, गदहे के-से कान और लम्बी जीभ ।”
मैंने कहा, “हटो, कोई चोर-चोर नहीं होता। किताब में तो यों ही तस्वीरें बनी होती हैं। लो, अब सो जाओ।”
कहकर मैं उसे थपथपाने लगी और कुछ देर में वह सो गया। इस बात को आठ-दस रोज हो गए। प्रद्युम्न की हालत पहले से ठीक है। मैंने सबसे कह दिया है कि प्रद्युम्न के सामने चोर की बात बिल्कुल मुँह से न निकालें । सब इस बात का ध्यान रखती हैं। और मालूम होता है कि चोर प्रद्युम्न के सिर से भी उतरकर भाग-भूग गया है।
दिलीप हमारा भतीजा है और साथ ही रहता है। वह एफ० ए० में पढ़ता है। कालेज दो मील होगा, साइकिल से आता-जाता है। प्रद्युम्न अपने कई साथियों के साथ स्कूल से लौटा था। आते ही बस्ता फेंक उन के साथ भाग जाना चाहता था। मैंने जैसे-तैसे उसे रोका और फल मिठाई उसे खिलाने लगी।
कहा, “सबेरे से गया, तुझे भूख नहीं लगी, प्रद्युम्न ?” खाने तो वह लगा; पर मन उसका दोस्तों में था। इतने में आया दिलीप । बोला, “चाची, एक चोर पकड़ा गया है, चोर । बाहर गली में सिपाही उसे ले जा रहे थे। सच्ची, चाची ! ”
मैंने अनायास कहा, “कहाँ रे ?”
दिलीप कापी-किताब फेंकते हुए बोला, “यह बाहर ही तो गली के बाहर ।”
“तो चलो, होगा ले, अरे खाता क्यों नहीं ?”
लेकिन प्रद्युम्न का मुंह रुक गया था। बरफी का पहला टुकड़ा भी नीचे नहीं उतरा था। वह भूला-सा सामने देखता रह गया था।
“ले खाता क्यों नहीं? खाकर कहीं जाना।’
परन्तु प्रद्युम्न कुछ देर उसी तरह खोया-सा रहा; फिर एक दम उठ कर वहाँ से भाग छूटा। मैंने तब दिलीप से कहा, “जा भय्या, देख तो, वह कहाँ जा रहा है ?”
दिलीप स्वयं ही जाना चाहता था। इसी से वह भी लपककर भाग गया। आने पर देखा कि दिलीप जितना उल्लसित है, प्रद्युम्न उतना ही चिन्तित दीखता है। मैं दिलीप से पूछने-ताछने लगी
और वह मुझे अपनी सुनी सुनाई सब बताने लगा। प्रद्युम्न तब बराबर पास खड़ा था। सहसा बीच में वह बोला, “चोर आदमी होता है, माँ ? चोर नहीं होता?” मैंने कहा, “हाँ बेटा, आदमी ही होता है।” “राक्षस नहीं होता ?”
मैंने कहा, “नहीं भैय्या, राक्षस नहीं होता।”
वह मेरी तरफ ताकता हुआ देखता रह गया। बोला, “राक्षस नहीं होता-बिल्कुल राक्षस नहीं होता ? तो फिर क्या बात है, अम्मा ? अब किवाड़ बन्द मत किया करो
।” मैंने तो सुनके माथा ठोक लिया, बहन ! सोचा कि इस ज़रा से में भी तो बाप के लच्छन आ गए !