ज्योतिबा फुले का जीवन परिचय, शिक्षा, आंदोलन और प्रासंगिकता

ज्योतिबा फुले का जीवन परिचय, शिक्षा, आंदोलन और प्रासंगिकता

 

आज जब हम स्वतंत्रता, समानता, समता और न्याय जैसे मूल्यों की बात करते हैं तो इसके आधार में हमारे पास हमारा संविधान है जो हमें मौलिक अधिकारों के रूप में इसकी गारंटी देता है। इसके साथ ही हमारे पास संयुक्त राष्ट्र के सार्वभौमिक मानवाधिकार और सतत विकास लक्ष्य हैं जो पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श और मानक का काम करते हैं लेकिन आज से लगभग दो सौ साल पहले जब भारत औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत ब्रिटिशर्स की ग़ुलामी के दौर से गुज़र रहा था ऐसे दौर में कुछ ऐसी महान विभूतियों ने इस धरती पर जन्म लिया जो अपनी दूरदर्शी सोच और कार्यों से समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाए।

महात्मा ज्योतिबा गोविंद राव फुले जिन्हें हम ज्योतिबा फुले के नाम से जानते हैं ऐसे ही महान शख़्सियतों में से एक थे, जिनके विचार और कार्य आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं और लोगों के लिए प्रेरणा का काम करते हैं।

हाल ही में इनकी ज़िंदगी पर आधारित फ़िल्म फुले को लेकर उपजे विवाद ने एक बार फिर से इनके विचारों और योगदान को चर्चा में ला दिया। फ़िल्म फुले 11 अप्रैल 2025 को देश के सिनेमाघर में रिलीज होनी थी लेकिन कुछ संगठनों के विरोध की वजह से सेंसर बोर्ड ने न सिर्फ़ इसके कई दृश्यों पर कैंची चला दी बल्कि इस वजह से इसकी रिलीज डेट भी बढ़ाकर 25 अप्रैल कर दी । यह घटना यह भी बताती है कि ज्योतिबा फुले के विचार और प्रयास न सिर्फ़ उस समय की रूढ़ियों को तोड़ने वाले थे बल्कि सामाजिक न्याय की लड़ाई में आज भी प्रासंगिक और प्रभावशाली बने हुए हैं।

ज्योतिबा फुले का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

11 अप्रैल 1827 को पुणे के साधारण माली परिवार में जन्मे ज्योतिबा फुले का जीवन बचपन से ही संघर्षों से भरा रहा। ज्योतिबा महज 1 साल के ही थे जब उनकी मां चिमणाबाई का देहांत हो गया। इसके बाद उनके पिता गोविंद राय ने सगुणाबाई से दूसरा विवाह किया, ज्योतिबा की देखभाल और पालन पोषण सगुणाबाई ने ही किया । इनके पिता गोविंद राय फूलों और सब्जियों का व्यापार करते थे। फुले बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे और इन्हें पढ़ाई लिखाई में बहुत अधिक रुचि थी। सामाजिक रूढ़ियों और ब्राह्मणों के दबाव के चलते इनके पिता ने इनकी पढ़ाई रुकवा दी, लेकिन ज्योतिबा हार मानने वालों में से नहीं थे।

1841 में इन्होंने पुणे के स्कॉटिश मिशनरी हाई स्कूल में दाखिला लिया और सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी की। यहीं पर इन्हें थॉमस पेन की ‘द राइट्स ऑफ मैन’ किताब पढ़ने का मौका मिला जिससे इनके भीतर समानता और सामाजिक न्याय की भावना और मजबूत हो गई। इस तरह ज्योतिबा फुले सामाजिक समता, समानता और न्याय के लिए प्रतिबद्ध हो गए।

 

ज्योतिबा फुले की नारीवादी सोच

आज जब हम नारीवादी सोच की बात करते हैं तो हमारे पास यूरोप, अमेरिका जैसे देश के उदाहरण होते हैं जहां से नारीवादी आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है। लेकिन फुले का नारीवाद कहीं से आयातित विचारधारा पर आधारित नहीं था बल्कि भारतीय समाज के तत्कालीन यथार्थ से उपजा था। फुले ने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जातिवाद के अंतर्संबंधों को समझा और समानता की राह में इसे सबसे बड़ी बाधा के तौर पर देखा।

फुले  का मानना था कि महिलाओं को शिक्षित किए बिना समाज में कोई भी क्रांति अधूरी है और यह केवल लैंगिक भेदभाव का मसला नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय से जुड़ा हुआ मुद्दा है। फुले ने हाशिए पर रख दिए गए समुदायों को मुख्यधारा में लाने के लिए भरसक प्रयास किया, इसमें स्त्री और दलित मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। इन्होंने जातिवाद, बाल विवाह, विधवा उत्पीड़न और स्त्री शोषण को ख़त्म करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

महात्मा फुले भारत के सबसे पहले नारीवादी कार्यकर्ताओं में से थे, जिन्होंने न सिर्फ़ इस विचारधारा को आगे बढ़ाया बल्कि उन्होंने अपने जीवन में भी इसे लागू किया। महाराष्ट्र में प्रचलित एक लोकप्रिय कथानक के अनुसार, जब ज्योतिबा के पिता ने संतान न होने की वजह से इन्हें दूसरे विवाह का सुझाव दिया, तो ज्योतिबा ने शर्त रखी कि पहले उनकी और सावित्रीबाई दोनों की मेडिकल जांच होनी चाहिए और अगर सावित्रीबाई में कमी पाई जाए तो वे दूसरा विवाह करने के लिए तैयार हैं लेकिन अगर उन में कमी पाई गई तो वे सावित्री का दूसरा विवाह करवाएंगे और वे सब उसी घर में एक साथ रहेंगे।

इस कहानी के भले ही ऐतिहासिक प्रमाण न हो, लेकिन पुणे के स्थानीय लोग इस पर मुहर लगाते हैं और यह उनके लैंगिक समानता और वैज्ञानिक तर्कशीलता के दृष्टिकोण के अनुरूप ही दिखाई देती है।

 

सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर शिक्षा के क्षेत्र में दिए अभूतपूर्व योगदान

ज्योतिबा का मानना था कि शिक्षा एकमात्र ऐसा साधन है जिससे भेदभाव ख़त्म करके सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। इसलिए इन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को न सिर्फ़ शिक्षित किया, बल्कि समाज सुधार के कार्यों में भी शामिल किया। सावित्री ख़ुद भी तार्किक और चिंतनशील महिला थीं । इसके साथ ही वे सामाजिक न्याय के लिए मुखर थीं। फुले दंपति ने सही मायने में “जीवनसाथी” / हमसफ़र शब्द को सार्थक किया और समाज के सामने यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि जीवनसाथी सामाजिक कार्यों में बाधक नहीं बल्कि एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सकते हैं।

ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले में 1848 में पुणे के भिड़े वाड़ा में जब देश का पहला बालिका विद्यालय खोला तो वह सिर्फ़ शिक्षा के लिए एक पहल ही नहीं बल्कि भेदभावपूर्ण रूढ़िवादी परंपराओं के प्रति विद्रोह भी था। इस तरह से सावित्रीबाई फुले ने न सिर्फ़ उस विद्यालय में बल्कि देश में ही पहली महिला शिक्षक होने का गौरव भी हासिल किया। इन दोनों ने जब पहला स्कूल खोला तब इसे धर्म और परंपरा के विरुद्ध विद्रोह के तौर पर देखा गया।

सामाजिक दबाव में आकर 1849 में ज्योतिबा के पिता ने इन्हें घर से निकाल दिया। इसके बावजूद इन्होंने हार नहीं मानी और एक साथ मिलकर समाज की सदियों पुरानी भेदभावपूर्ण परंपरा के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष में लग रहे। इनका दांपत्य जीवन आज भी समाज के सामने एक मिसाल है।

इसके बाद इन्होंने 1852 तक तीन विद्यालय और खोले जिसमें दर्जनों बच्चियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। हालांकि 1857 के विद्रोह के बाद आर्थिक संकट की वजह से इनके कुछ विद्यालय बंद होने की कगार पर पहुंच गए। इसके बावजूद फुले दंपति ने हार नहीं मानी और महिलाओं तथा पिछड़ी माने जाने वाली जातियों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए अथक परिश्रम करते रहे। एक ऐसे समय में जब महिलाओं और शूद्रों की पढ़ाई-लिखाई के बारे में सोचना ही धर्म के विरुद्ध और पाप समझा जाता था, उस समय में फुले दंपति की जलाई हुई शिक्षा की मशाल सदियों तक देश को दिशा दिखाने का काम करती रही।

 

सामाजिक सुधार से जुड़े अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य

ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक स्वरूप को पहचान लिया था और शास्त्रों में लिखे स्त्री और दलित विरोधी बातों के कठोर आलोचक बन गए। अपनी प्रसिद्ध किताब “ग़ुलामगीरी” में उन्होंने धर्म और परंपरा के नाम पर स्त्रियों के शोषण का तार्किक विश्लेषण किया। इसमें उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार से परंपरा और संस्कार के नाम पर सदियों से स्त्रियों और दलितों को अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और संस्थागत रूप से भेदभाव किया जा रहा है। इन्होंने स्त्री शिक्षा के साथ ही विधवाओं के पुनर्विवाह और मातृत्व के अधिकारों की भी पैरवी की जो तत्कालीन समाज में सर्वथा चुनौतीपूर्ण बात थी।

फुले ने धर्म और परंपरा के नाम पर विधवा स्त्रियों के प्रति की जा रही क्रूरता और अमानवीय रीति रिवाज का पुरजोर विरोध किया। इन्होंने एक विधवा के बच्चे को गोद लिया और समाज को संदेश दिया कि एक स्त्री के शरीर पर समाज का नहीं बल्कि उस महिला का अधिकार है और उसे भी उसी समाज में पूरे सम्मान के साथ जीने का हक़ है। इसी प्रकार इन्होंने जातिवाद के ख़िलाफ़ भी मुहिम चलाई।

1848 में इनके साथ एक घटना हुई जब ये एक ब्राह्मण मित्र की शादी में शामिल हुए तो इन्हें केवल निम्न जाति का कहकर न सिर्फ़ अपमानित किया गया बल्कि उस समारोह से भी बाहर निकाल दिया गया। इस घटना ने फुले के मन पर गहरा असर डाला और इन्होंने जातिवाद के विरुद्ध अपनी लड़ाई को और तेज कर दिया।

 

सत्यशोधक समाज की स्थापना

समाज में सदियों से हो रहे संस्थागत भेदभाव और पारंपरिक ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था को ख़त्म करने और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए ज्योतिबा फुले ने 24 सितंबर 1873 को पुणे में सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य धार्मिक रूढ़िवादी परंपराओं, जाति व्यवस्था, लिंगभेद सहित तमाम सामाजिक असमानताओं के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी थी। सत्यशोधक समाज ख़ासतौर पर दलित, महिलाओं और वंचितों की शिक्षा और उत्थान के लिए बनाया गया था, जिससे सामाजिक समानता और न्याय की स्थापना की जा सके।

सत्यशोधक समाज में पारंपरिक ब्राह्मणवादी रीति-रिवाज को चुनौती दी और जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए सादगी पूर्ण विवाह संस्कार शुरू किया जिसका आधार वेद मंत्र या पुरोहित नहीं बल्कि समानता और तर्क था। उस समय यह एक बहुत बड़ी क्रांति के तौर पर देखा गया क्योंकि अंतर्जातीय विवाह और विधवा पुनर्विवाह उस समय की सोच से बहुत आगे की बात थी।

हालांकि इसके सैकड़ों साल बीतने के बाद आज तक भी समाज अंतर्जातीय विवाह और विधवा विवाह को मन से स्वीकार नहीं कर पाया है। सत्यशोधक समाज के विचारों को आम जनता तक पहुंचाने के लिए “दीनबंधु” पत्रिका की अहम भूमिका है। दीनबंधु पत्रिका का संचालन 1877 में ज्योतिबा फुले के सहयोगी कृष्ण राव भालेकर और उनके साथियों ने मिलकर किया था।

 

ज्योतिबा फुले द्वारा किए गए दूसरे सामाजिक सुधार

ज्योतिबा फुले ने न केवल सामाजिक बल्कि आर्थिक और राजनीतिक असमानता के ख़िलाफ़ भी जीवन भर संघर्ष किया। अपनी किताब शेतकऱ्याचा आसूड (1881) मैं उन्होंने किसानों की दुर्दशा पर विस्तार पूर्वक लिखा और इसमें ब्राह्मणवादी और ब्रिटिश शोषण पर तीखा प्रहार किया। इसके अलावा उस समय समाज में प्रचलित बाल विवाह को रोकने के लिए भी ज्योतिबा ने अथक प्रयास किया। साथ ही विधवाओं की बदहाली और भेदभाव के ख़िलाफ़ जमकर आंदोलन किया और समाज में जागरूकता फैलाने का प्रयास किया।

इसके लिए इन्होंने 1854 में पुणे में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की जो विधवाओं और उनके बच्चों के लिए बड़ा सहारा बना। फुले दंपति ने विधवा पुनर्विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए कई क़दम उठाए और अपनी संस्था सत्यशोधक समाज के माध्यम से विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए ज़मीनी स्तर पर प्रयास भी किया।

 

ज्योतिबा फुले का साहित्यिक योगदान

ज्योतिबा फुले ने अपने विचारों को कलमबद्ध करने का काम भी किया जो आज भी समानता और सामाजिक न्याय के लिए मील का पत्थर बना हुआ है। इनकी रचनाओं में सामाजिक सुधार और समानता ख़ासतौर पर देखी जा सकती है। इनकी रचनाएं सामाजिक भेदभाव और शोषण के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी दस्तावेज के तौर पर देखी जाती हैं। 1855 में लिखे गए अपने एक अपूर्ण नाटक तृतीय रत्ना में इन्होंने ब्राह्मणवादी पाखंड पर तीखा प्रहार किया है। इसी तरह 1869 में प्रकाशित किताब पोवाड़ा: छत्रपति शिवाजीराजे भोसले यांचा में जाने माने योद्धा शिवाजी के बारे में वर्णन किया है।

1873 में इनकी सबसे प्रभावशाली किताब गुलामगीरी प्रकाशित हुई, जिसने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। इसमें ज्योतिबा फुले ने जातिगत उत्पीड़न की अमेरिकी गुलामी से तुलना की है और इसे दुनिया भर के गुलामी विरोधी आंदोलन को समर्पित किया गया है। डॉक्टर सदानंद मोरे ने गुलामगिरी को महाग्रंथ का दर्ज़ा दिया है और इस पर आज पुणे और मुंबई विश्वविद्यालय सहित देश और दुनिया के जाने-माने विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध का काम किया जा रहा है।

1881 में आई अपनी किताब शेतकऱ्याचा आसूड 1881 में उन्होंने किसानों की पीड़ा को अपनी लेखनी के माध्यम से जगह दी। इसके साथ ही 1889 में प्रकाशित सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक फुले की ऐसी किताब थी जो मानवता के सिद्धांत पर आधारित थी। इसमें उन्होंने सामाजिक और धार्मिक दर्शन को आधार बनाकर तर्क, समानता और मानवता आधारित समाज की स्थापना का आदर्श प्रस्तुत किया। इस तरह ज्योतिबा फुले ने अपने विचारों और कार्यों के साथ ही अपनी लेखनी को माध्यम बनाकर समाज में जागरूकता फैलाने, सामाजिक समता, समानता और न्याय की स्थापना के लिए प्रयास किया। फुले की रचनाओं में उनके विचारों की गहराई, संवेदना, समानतावादी दृष्टिकोण और बदलाव की कोशिश साफतौर पर दिखाई देती है।

 

आधुनिक संदर्भ में ज्योतिबा फुले के विचारों की प्रासंगिकता

ज्योतिबा फुले के विचार न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए आज भी प्रेरणास्रोत और प्रासंगिक बने हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) जैसे शिक्षा (SDG 4), लैंगिक समानता (SDG 5), और सामाजिक समावेशिता (SDG 10) में उन्हीं आदर्शों की स्थापना की बात की गई है जिसके लिए सैकड़ों साल पहले ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने अपना जीवन समर्पित कर दिया था। संयुक्त राष्ट्र के ही हालिया अनुमान के अनुसार, वर्तमान दर से भारत में लैंगिक समानता आने में अब से लगभग 131 साल और लगेंगे ऐसे में फुले के विचारों की प्रासंगिकता तब तक बनी रहेगी जब तक यह समानता स्थापित नहीं हो जाती।

आज भी जाति के आधार पर कदम कदम पर भेदभाव किया जा रहा है। आज भी दूसरे रूपों में वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पित्तृसत्ता का समाज में असर देखा जा सकता है। ऐसे में फुले के विचार समानतावादी समाज की स्थापना के लिए संघर्षरत साथियों के लिए मार्गदर्शन का काम करते हैं। डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी इन्हें बुद्ध और कबीर के बाद अपना तीसरा गुरु माना था।

आज जब हम इंटरसेक्शनल फेमिनिज़्म की बात करते हैं, तब फुले का जाति, धर्म और लिंग का ‘इंटरसेक्शनल’ दृष्टिकोण समझना नारीवादी आंदोलन के लिए बेहद ज़रूरी हो जाता है। आज भी जब देश में ए ग्रेड के वैधानिक पदों पर जाति विशेष का वर्चस्व बरक़रार है, जाति, धर्म, संप्रदाय पर आधारित भेदभाव और हिंसा जिस तरह से बढ़ रही है ,ऐसे में फुले और भी प्रासंगिक हो जाते हैं।

ज्योतिबा फुले एक ऐसे युगद्रष्टा थे, जिनकी सोच समय से आगे थी। इन्होंने एक ऐसे समय में समानता, शिक्षा और मानवता की अलख जगाई जब इस बारे में बात करना तो दूर कोई सोच भी नहीं पाता था। उनकी विरासत आज भी उन सभी के लिए मार्गदर्शन का काम करती है जो एक न्यायपूर्ण और समतावादी समाज की स्थापना करना चाहते हैं।

 

© प्रीति खरवार

सोर्स लिंक..

https://www.britannica.com/biography/Jyotirao-Phule

Savitribai Phule in Hindi : सावित्रीबाई फुले जयन्ती

Priti Kharwar

प्रीति खरवार एक स्वतंत्र लेखिका हैं, जो शोध-आधारित हिंदी-लेखन में विशेषज्ञता रखती हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में परास्नातक प्रीति सामान्य ज्ञान और समसामयिक विषयों में विशेष रुचि रखती हैं। निरंतर सीखने और सुधार के प्रति समर्पित प्रीति का लक्ष्य हिंदी भाषी पाठकों को उनकी अपनी भाषा में जटिल विषयों और मुद्दों से सम्बंधित उच्च गुणवत्ता वाली अद्यतन मानक सामग्री उपलब्ध कराना है।

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