दिवस का अवसान समीप था कविता की मूल संवेदना
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ हिंदी के एक बहुचर्चित कवि हैं। आधुनिक काल का प्रथम महाकाव्य “प्रिय प्रवास” अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने ही रचा है । “दिवस का अवसान” वस्तुत उनके महाकाव्य प्रिय प्रवास से ही लिया गया अंश है।
पद्य प्रसून, वैदेही वनवास, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, काव्योपवन, रस कलश, पारिजात इत्यादि उनकी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। इन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य का विकास उल्लेखनीय स्तर पर किया है, विशेष तौर पर खड़ी बोली हिंदी में उनकी रचनाओं का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। जिस समय खड़ी बोली काव्य में स्थान बना रही थी, उस समय हरिऔध जी ने खड़ी बोली में सफल काव्य रचना करके उसका स्थान साहित्य में सुनिश्चित किया।
प्रियप्रवास के प्रथम सर्ग से दिवस का अवसान कविता ली गई है। इस अंश में श्री कृष्णा और बलराम के वन से गायों को चरा कर लौटने का चित्रण किया गया है। कवि ने सांध्यकालीन वातावरण के साथ श्री कृष्णा के सौंदर्य और गोकुल वासियों के बीच कृष्ण-प्रेम की आतुरता एवं गहराई को भी सफलतापूर्वक दर्शाया है।
कवि बताते हैं कि दिवस का अवसान होने वाला था अर्थात यह दिन छिपकर रात्रि की तरफ बढ़ने वाला था। कमलिनी कुल बल्लभ अर्थात सूर्य अस्ताचल में ओझल हो रहे थे और वृक्षों की फुनगी पर धूप के रूप में अपनी अंतिम उपस्थिति दर्शा रहे थे ।जंगल के बीच में पक्षियों का झुंड संध्या के समय तीव्र ध्वनि पैदा कर रहा था। विभिन्न प्रकार के पक्षियों की पंक्तियां आकाश मंडल के मध्य विचरण कर रही थी।
धीरे-धीरे आकाश में लालिमा और बढ़ी। दसों दिशाएं सूर्यास्त के विभिन्न रंगों से रंग गई। समस्त प्रकार की वनस्पतियों में व्याप्त हरीतिमा लालिमा में परिवर्तित हो गई। आकाश की यह लालिमा पानी के किनारो पर भी झिलमिलाने लगी । नदी और सरोवर के जल में दिखाई देने वाली यह अरुणिमा अत्यंत रमणीय थी ।जो धूप दिन में पेड़ के शीश पर विराज रही थी, अब वह पर्वत के शिखर पर पहुंच गई अर्थात धीरे-धीरे धूप की किरणें कम होते हुए पौधों से पेड़, पेड़ों की शाखों से गुजर कर पहाड़ की चोटी तक पहुंच गई ।सूर्य का लाल बिम्ब डूबते-डूबते आकाश के मध्य खोने लग गया।
संध्याकालीन वातावरण के इस मनोरम चित्रण के बाद कवि बताते हैं कि ठीक इसी समय पहाड़ की कंदराओं को अपनी मुरली की धुन से गुंजायमान करके सुरम्य वन-उपवन से श्री कृष्ण यमुना तट की ओर सुशोभित हुए। श्री कृष्ण अपने साथ गोधन को लेते हुए आ रहे हैं तो उनके साथ की गायों के बछड़ों के सिंगों के टकराने से बहुत ही तेज स्वर सुनाई दे रहा है। दौड़ती हुई गायों के सिंगों के टकराने का बिम्बात्मक चित्रण हरिऔध जी ने यहां पर किया है।
पल भर में ही जंगल की तरफ से आने वाली पगडंडी विविध प्रकार के रंगों और आकार प्रकार वाले पशुधन से सुसज्जित हो गई। गायों के साथ-साथ उनके बछड़ों का धूल धुसरित झुंड भी मस्ती के साथ चल रहा था। इसी के साथ एक सभी ग्वाल बाल गायों और मित्र मंडली के साथ ब्रजभूषण अर्थात ब्रज के सौंदर्य विधायक श्री कृष्ण को लेकर सजे सांवरे अपने प्यारे गोकुल ग्राम में पधारे । गोकुल को कवि ने खुला खुला और सजा – संवरा गांव दिखाया है।
इतनी सारी गायों को साथ लेकर चलने से गगन मंडल में धूल व्याप गई है। गायों के सिंगों और खुरों की आवाजों से दसों दिशाएं गूंज उठी। गोकुल के खुले खुले घरों में दिन भर की चुप्पी के बाद अचानक कृष्ण और ग्वाल बालों को आया देखकर हंसी- खुशी का वातावरण जीवंत हो गया है।
सारे गोकुलवासी दिनभर श्री कृष्ण के दर्शनों के बिना अनमने से थे। अब दिन बीतने के साथ-साथ जैसे ही कृष्ण के ब्रज में लौटने का समय आया, उनके दर्शनों की लालसा से ब्रजवासियों का उत्कंठित हृदय तेजी से धड़कने लगा। ज्यों ही उनको कृष्ण की बांसुरी की सुरीली धुन सुनाई पड़ी, सारे ग्रामवासी उत्सुकता से भर उठे। सभी का हृदय यंत्र जोर से बजने लगा।
अर्थात दिन भर से वे कृष्ण की राह निहारे रहे थे और उनके लौटने की प्रतीति होते ही उनके हृदय उत्साह से अनियंत्रित होकर धड़कने लगे। गोकुल की समस्त युवतियां, बालिकाएं, बालक, वृद्ध और व्यस्क सभी अपने अपने मन के हाथों विवश होकर अपने-अपने घरों से अपनी आंखों के दुख को मिटाने के लिए निकल आए। अर्थात श्री कृष्ण ही उनकी आंखों का सुख है। उनको बिना देखे वे सभी बेचैन थे और अब उनको देखकर अपने नेत्रों को सुख प्रदान करना चाहते हैं।
इधर गोकुल से श्री कृष्ण के दर्शनों के लिए मुदित मन से जनता निकल कर आई,उधर कृष्ण और बलराम की जोड़ी अनेक प्रकार की गायों के झुंड के साथ इनके बीच प्रकट हुए। विभिन्न प्रकार की राग रागिनियों और अर्जुन के चंदन से ललाट सजाये ब्रज के सौभाग्य श्री कृष्ण इस प्रकार से शोभायमन हो रहे थे मानो दिशाओं की कालिमा को नष्ट कर चंद्रमा नभ में सुशोभित हो रहा हो ! गहरे काले फूलों वाली शरद ऋतु के सरोवर के पुष्पों को धारण किए हुए नए-नवेले (चिर युवा) श्री श्याम ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो जल से भरे हुए बादलों में जंच रहे हो।
श्री कृष्ण के शारीरिक सौष्ठव का चित्रण करते हुए हरिऔध जी बताते हैं कि उनके अंग प्रत्यंग सुविकसित थे। उनके शरीर की कांति दर्पण की भांति प्रतिबिंब हो रही थी और उनमें एक कोमलता प्रतिक्षण भासित हो रही थी। उनकी कमर में पीत वस्त्र सुशोभित हो रहा था। उनके कंधों पर अत्यंत आकर्षक दूकूल सज रहा था।
उनके हृदय पर सुंदर वनमाला विराज रही थी। उनके कानों में मकर केतन( मगरमच्छ और केकड़े जैसे जंतु की आकृति के) के कुंडल सुंदर लग रहे थे ।उनके ललाट और कानों के चारों तरफ उनकी घुंघराली लटें आकर्षण उत्पन्न कर रही थी। उनके मस्तक पर मोर पंख का मुकुट विराजमान था, जो बहुत ही मधुरिमा युक्त एवं सुंदरता से भरा हुआ था। गहरे नीले रत्न के समान चमकीली उनके मुखारविंद की आभा थी।
इस प्रकार हरिऔध जी ने दिवस का अवसान कविता में न सिर्फ गोधूलि बेला का सजीव चित्रण किया है बल्कि श्री कृष्ण के प्रति गोकुलवासियों के आकर्षण को अत्यंत निकटता से दर्शाया है। कृष्ण का गायों के प्रति प्रेम और उनके शरीर सौष्ठव का आकर्षक चित्रण भी कवि ने अत्यंत सफलतापूर्वक किया है।
© डॉ. संजू सदानीरा
प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग /
दिवस का अवसान समीप था।
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु-शिखा पर थी अब राजती।
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा॥1॥
विपिन बीच विहंगम वृंद का।
कलनिनाद विवर्द्धित था हुआ।
ध्वनिमयी-विविधा विहगावली।
उड़ रही नभ-मंडल मध्य थी॥2॥
अधिक और हुई नभ-लालिमा।
दश-दिशा अनुरंजित हो गई।
सकल-पादप-पुंज हरीतिमा।
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई॥3॥
झलकने पुलिनों पर भी लगी।
गगन के तल की यह लालिमा।
सरि सरोवर के जल में पड़ी।
अरुणता अति ही रमणीय थी॥4॥
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी।
किरण पादप-शीश-विहारिणी।
तरणि-बिम्ब तिरोहित हो चला।
गगन-मंडल मध्य शनैः शनैः॥5॥
ध्वनि-मयी कर के गिरि-कंदरा।
कलित कानन केलि निकुंज को।
बज उठी मुरली इस काल ही।
तरणिजा तट राजित कुंज में॥6॥
कणित मंजु-विषाण हुए कई।
रणित शृंग हुए बहु साथ ही।
फिर समाहित-प्रान्तर-भाग में।
सुन पड़ा स्वर धावित-धेनु का॥7॥
निमिष में वन-व्यापित-वीथिका।
विविध-धेनु-विभूषित हो गई।
धवल-धूसर-वत्स-समूह भी।
विलसता जिनके दल साथ था॥8॥
जब हुए समवेत शनैः शनैः।
सकल गोप सधेनु समंडली।
तब चले ब्रज-भूषण को लिये।
अति अलंकृत-गोकुल-ग्राम को॥9॥
गगन मंडल में रज छा गई।
दश-दिशा बहु शब्द-मयी हुई।
विशद-गोकुल के प्रति-गेह में।
बह चला वर-स्रोत विनोद का॥10॥
सकल वासर आकुल से रहे।
अखिल-मानव गोकुल-ग्राम के।
अब दिनांत विलोकित ही बढ़ी।
ब्रज-विभूषण-दर्शन-लालसा॥11॥
सुन पड़ा स्वर ज्यों कल-वेणु का।
सकल-ग्राम समुत्सुक हो उठा।
हृदय-यंत्र निनादित हो गया।
तुरत ही अनियंत्रित भाव से॥12॥
बहु युवा युवती गृह-बालिका।
विपुल-बालक वृद्ध व्यस्क भी।
विवश से निकले निज गेह से।
स्वदृग का दुख-मोचन के लिए॥13॥
इधर गोकुल से जनता कढ़ी।
उमगती पगती अति मोद में।
उधर आ पहुँची बलबीर की।
विपुल-धेनु-विमंडित मंडली॥14॥
ककुभ-शोभित गोरज बीच से।
निकलते ब्रज-बल्लभ यों लसे।
कदन ज्यों करके दिशि कालिमा।
विलसता नभ में नलिनीश है॥15॥
अतसि पुष्प अलंकृतकारिणी।
शरद नील-सरोरुह रंजिनी।
नवल-सुंदर-श्याम-शरीर की।
सजल-नीरद सी कल-कांति थी॥16॥
अति-समुत्तम अंग समूह था।
मुकुर-मंजुल औ मनभावना।
सतत थी जिसमें सुकुमारता।
सरसता प्रतिबिंबित हो रही॥17॥
बिलसता कटि में पट पीत था।
रुचिर वस्त्र विभूषित गात था।
लस रही उर में बनमाल थी।
कल-दुकूल-अलंकृत स्कंध था॥18॥
मकर-केतन के कल-केतु से।
लसित थे वर-कुंडल कान में।
घिर रही जिनकी सब ओर थी।
विविध-भावमयी अलकावली॥19॥
मुकुट मस्तक था शिखि-पक्ष का।
मधुरिमामय था बहु मंजु था।
असित रत्न समान सुरंजिता।
सतत थी जिसकी वर चंद्रिका॥20॥