निज भाषा उन्नति अहै कविता की व्याख्या

निज भाषा उन्नति अहै कविता की व्याख्या

 

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,

बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।

अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन,

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।

उन्नति पूरी है तबहिं, जब घर उन्नति होय,

निज शरीर उन्नति किए, रहत मूढ़ सब कोय ।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय,

लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग,

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात,

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय,

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार,

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात,

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।

सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय,

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

 

इस कविता के माध्यम से आधुनिक हिंदी के पिता कहलाए जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी मातृभाषा के महत्त्व को रेखांकित किया है। अगर आपको अपनी मातृभाषा का ज्ञान नहीं है तो आपको कितनी भी अंग्रेज़ी आती हो, दूसरी विदेशी भाषाएं आती हों आपका ज्ञान अधूरा है। अपनी भाषा की तरक्की में आपकी सभी उन्नति का मूल है। अगर आपने अपनी भाषा को सीख लिया, समझ लिया, उसमें ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथ लिख लिया, तो बाकी विकास का मार्ग स्वत: प्रशस्त है और अपनी भाषा के ज्ञान के बिना अज्ञानता का कांटा चुभता रहता है। अर्थात आपके जीवन में सबसे अधिक आपकी मातृभाषा में चीजें आप तक सरलता से पहुंच सकती हैं।

ज्ञान विज्ञान के‌ ज्यादा से ज्यादा संसाधन अपनी भाषा में हम तक पहुंचने चाहिए।

कहते हैं अंग्रेज़ों के राज में कभी सूरज नहीं डूबता, अमेरिका तक पर एक बार अंग्रेज़ों का राज़ था, तो इसी बात के लिए कवि ने कहा है यद्यपि अंग्रेजी पढ़कर सभी गुणों में प्रवीण हो सकते हैं, उठना, बैठना व्यवहार, पर्सनालिटी सब बन जाती है अंग्रेजी सीखने से, लेकिन अगर अपनी भाषा नहीं आती है तो हीनता बोध नहीं जाएगा। आपको अंग्रेजी तो आ गई लेकिन अपनी राजस्थानी, अपनी हिंदी ये नहीं आई तो हीन के हीन रह जाएंगे।

वो अंग्रेज तो अपनी भाषा पूरे विश्व में प्रसारित कर रहे हैं लेकिन आप अपनी खुद की भाषा नहीं जानते! जब अपने घर की तरक्की होती है तभी वास्तविक तरक्की मानी जाएगी। खुद के यहां गरीबी हो और आप बड़ी-बड़ी बातें करें तो यह बड़ी-बड़ी बातें व्यर्थ हैं।

अगर शरीर में रोग लगे हुए हो तो नीरोग की बात करना कोई फ़ायदे की बात नहीं है। अपने शरीर- मन को पहले आप स्वस्थ बनाए तब आपकी मूढ़ता, अस्वस्थता सब ख़त्म होगी।

अगर पढ़ाई लिखाई की भाषा, लोक व्यवहार की भाषा एक हो,घर में सब लोगों को एक तरह की भाषा समझ में आती हो, तब सब लोगों में प्यार बनेगा, उनमें संवाद होगा और क्लेश की बीमारी दूर होगी।

यहां पर कवि का मतलब यह नहीं है कि केवल एक ही भाषा बोलें क्योंकि थोड़ी-थोड़ी दूर में भाषा बदल जाती है। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और दूसरे राज्यों में,सब में अलग-अलग भाषाएं बोली जाती हैं। आप चाहें कि सभी एक जैसी भाषा बोलें तो यह संभव नहीं है। लेकिन एक प्रांत में रहने वाले सभी लोग आपस में बात करना चाहें और उनकी सामान भाषा होगी तो मतभिन्नता कदाचित कम होगी। आपस में उनको विचार व्यक्त करने में आसानी होगी। एक भाषा बोलें, एक मन के हों जाएं सब,तब उनमें मतभिन्नता नहीं होगी। घर के सब लोगों की बुद्धि एक तरह की हो, सब लोग एक दूसरे को समझें, तब वहां मूर्खता मिटेगी।

 

एक और लाभ कवि ने बताया है- वह बिल्कुल प्रकट में दिखता है। अगर आप छोटे बच्चों को शिक्षा देने के लिए उसकी बचपन की भाषा, घर की भाषा इस्तेमाल करेंगे तो विद्या की बात, ज्ञान की बात उसको जल्दी समझ में आएगी। इस भाषा को सुनकर सबको लाभ मिलेगा, इस बात को अगर सुन लिया जाए कि मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए तो इसमें वह लाभ है जो दूसरी भाषाएं नहीं कर सकतीं ।

छोटे बच्चों को अगर किसी चीज के बारे में समझाना हो तो सबसे पहले उसकी अपनी मातृभाषा में समझाया जाए। बच्चे को हम “एप्पल” तो बताते हैं लेकिन अगर उसको “सेब” बताया जाए तो और अच्छे से समझेगा और अगर राजस्थानी में उसका और कोई नाम है और उसे उसमें बताया जाए तो वह और अच्छे से समझेगा। जैसे-जैसे उम्र बढ़े, वैसे-वैसे अलग-अलग भाषाओं का ज्ञान भी बढ़े।

कवि ने यह भी कहा है की विविध देशों से, अलग-अलग देशों से आप कला, शिक्षा, ज्ञान के अलग-अलग प्रकार सब लीजिए। अलग-अलग देशों से अपनी भाषा में उनको बदल करके अपनी भाषा में उनको जनता के बीच में लाइए तो और भी ज़्यादा विविधता आएगी। एक ही तरह का अगर आपके यहां संस्कार है, संस्कृति है, सभ्यता है तो उसमें दूसरे दूसरे देशों की सभ्यता ,संस्कृतियों का तड़का लगेगा तो आपकी भाषा को समृद्धि मिलेगी।

भारत में सब अलग-अलग तरह से दिखते हैं, अलग-अलग तरह से रहते हैं सबका खान-पान अलग-अलग है, अलग-अलग वेशभूषा है, अलग-अलग को एक करने की एक मुहिम चल रही है, इसी से ज़्यादा उत्पात होता है। विविध प्रकार के देश हैं उसमें विविध प्रकार की विचारधाराएं प्रचलित हैं, विविध प्रकार की भाषाएं दिखाई देती है। एक जगह पर आप एक भाषा को रखेंगे तो उसे विभिन्नता में एकता भी आएगी। क्योंकि देखिए जितनी भी चीजें हैं, यह नहीं हो सकता कि सारे देशवासियों का एक ही धर्म हो जाए, एक ही भाषा हो जाए एक ही पहनावा हो जाए, एक ही तरह का खान-पान हो जाए।

परिवेश के हिसाब से, वहां की भौगोलिक परिस्थितियों की वजह से कई चीजें अलग होंगी। जैसे अगर आप किसी भाषा को अपनी राष्ट्रभाषा मानते हैं तो वह आपको विदेश में अपनी बात अपनी भाषा में रखने का मौका देगी। यहां पर आप हिंदी को इस रूप में ले सकते हैं की विभिन्न प्रकार की मातृभाषाओं के बावजूद एक भाषा को आप लेकर के अपने देश का प्रतिनिधित्व विभिन्न जगहों पर कर सकते हैं। इसलिए सब लोग मिलकर के दूसरे उपाय छोड़ दीजिए।

देश की तरक्की के लिए दूसरे और उपाय नहीं हो पा रहे हों तो आप सिर्फ़ अपनी भाषा की उन्नति कीजिए। सभी लोग आइए अपनी भाषायी उन्नति दिखाइए अगर इससे देश की उन्नति होती है तो आपकी उन्नति भी होगी।

इस प्रकार से भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस कविता के माध्यम से मातृभाषा और राष्ट्रभाषा इन दोनों के महत्व को रेखांकित किया है और वे अपनी बात को स्पष्ट रूप से समझने में सफल हुए हैं। हालांकि आज के वैश्विक परिदृश्य में पूरी तरह से उनसे सहमत होना मुमकिन नहीं है परन्तु मातृभाषा को लेकर उनकी मान्यताओं से सहमत हुआ जा सकता है।

 

© डॉक्टर संजू सदानीरा

 

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Dr. Sanju Sadaneera

डॉ. संजू सदानीरा एक प्रतिष्ठित असिस्टेंट प्रोफेसर और हिंदी साहित्य विभाग की प्रमुख हैं।इन्हें अकादमिक क्षेत्र में बीस वर्षों से अधिक का समर्पित कार्यानुभव है। हिन्दी, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान विषयों में परास्नातक डॉ. संजू सदानीरा ने हिंदी साहित्य में नेट, जेआरएफ सहित अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के उपन्यासों पर शोध कार्य किया है। ये "Dr. Sanju Sadaneera" यूट्यूब चैनल के माध्यम से भी शिक्षा के प्रसार एवं सकारात्मक सामाजिक बदलाव हेतु सक्रिय हैं।

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