पूछती है बेकळू कविता की व्याख्या/मूल संवेदना
ओम पुरोहित ‘कागद’ राजस्थान के समकालीन कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनका जन्म 1957 ई. में राजस्थान के गंगानगर जिले में हुआ था और देहांत 2016 ई. में हुआ। चूरू जिला इनका कार्यक्षेत्र रहा। इनकी कविताओं में राजस्थान की रेगिस्तानी तासीर, रेत की प्यास, किसानों की आस और कृषक जीवन के विविध रंग बहुतायात में देखे जा सकते हैं। अंतस री, बळत,शब्द गळगळा, कुचरनी और बात ही तो है इनकी अत्यंत लोकप्रिय कविताएं हैं। इनकी हिंदी कविताओं में पेड़ खड़े हैं, सपनों की उधेड़बुन, यादें तुम्हारी ,आज जाना और थार में प्यास इत्यादि बहुत ही लोकप्रिय हैं।
पूछती है बेकळू (बेकलू) जल से हीन सूखी रेत के ढेर में बदल चुके खेत की दारुण दशा का चित्रण करती है।
कवि वेदना के साथ सोनचिड़िया के माध्यम से सूखे की पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं । इधर-उधर बेकल और बेकाम उड़ती हुई सोनचिड़िया से खेत की सूखी भुरभुरी मेड़ पूछती है कि गांव से अपनी कुपोषित ऊंटनी को लेकर हलवाहा कब आएगा? समझने की बात यह कि अकाल के कारण चारा न मिलने से ऊंटनी मरियल-सी है।
कब हलवाहे की पत्नी खेत में अपनी फटी-पुरानी गोटे किनारी वाली चुनरी और बदरंग घाघरा-कांचली पहने हुए खाना लेकर आएगी? ग़ौरतलब है कि ज़माना (समय पर ख़ूब फसल होना) अच्छा होने पर ही किसान की पत्नी के शरीर पर नए कपड़े आते हैं अन्यथा पुराने कपड़ों पर ही थेगलियां लगती रहती हैं।
बारिश की बूंद को तरसती खेत की सूखी जमीन बेचैन होकर पूछती है कि कब किसान के घर से खेत में खाना आएगा और कब प्याज के साथ छाछ और राबड़ी की बूंदें उसकी प्यासी छाती पर गिरेंगी? यहां बेकलू के माध्यम से कवि उस दृश्य का चित्रण कर रहे हैं जिसमें खेतों में अच्छी फसल होने पर किसान दिन-रात खेतों में रहने लगते हैं अथवा दिन भर भोजन-पानी तो खेतों में ही करने लगते हैं। अब जब बारिश की बूंद तक नहीं और खेत सपाट पड़े हैं तो खेत की माटी किसान के घर की छाछ-राबड़ी के अभाव में सूनी पड़ी है। बिना फसल के कैसे किसान खेतों का रुख करे?
इस प्रकार ओम पुरोहित ‘कागद’ ने इस कविता के माध्यम से खेत की माटी और किसान के बीच गहन संवेदनात्मक संबंध का सजीव चित्रण किया है। कविता काळ (अकाल ) की विकट परिस्थितियों का चित्रण ऊंटनी की मरियल स्थिति, कृषक महिला के वस्त्रों और खेत की प्यार और प्रतीक्षा के माध्यम से मार्मिकतापूर्वक करती है।
© डॉ. संजू सदानीरा
ओम पुरोहित ‘कागद’ : पूछती है बेकळू
इधर-उधर उड़ती
सोनचिड़ी से पूछती है
खेत की बेकळू कब आएगा गांव से
मरियल सी सांड लिए
हल जोतने जोगलिया ?
कब आएगी
उसकी बीनणी भाता ले कर
गोटा किनारी वाले
तार-तार
घाघरा कांचळी पहने ?
कब खिंडेगी
इधर-उधर
मेरी तपती देह पर
प्याज के छिलकों संग
छाछ राब की बूंदें?