विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल : थीम, इतिहास, महत्त्व और प्रासंगिकता
जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में स्वास्थ्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके महत्त्व को रेखांकित करने के लिए और दुनिया भर में जागरूकता फैलाने के लिए प्रत्येक वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल को मनाया जाता है। यह दिन इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि यह सार्वभौमिक मानव अधिकार की दिशा में सभी को स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए एक मंच प्रदान करता है। इस अवसर पर सरकारी और ग़ैर सरकारी, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठन मिलकर स्वास्थ्य से जुड़ी वर्तमान चुनौतियों और समाधान की दिशा में साथ मिलकर योजनाएं बनाने और उस पर अमल करने की दिशा में काम करते हैं। इसके साथ ही यह स्वास्थ्य की दिशा में जागरूकता बढ़ाने के लिए भी योगदान देता है।
विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल को ही क्यों?
दुनिया भर में सभी के लिए स्वास्थ्य सुनिश्चित करने का सबसे बड़ा संगठन विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation) है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना 7 अप्रैल 1948 में हुई थी इसका मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जिनेवा में है। वर्तमान में विश्व स्वास्थ्य संगठन के 194 सदस्य देश हैं। विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल को मनाए जाने के पीछे विश्व स्वास्थ्य संगठन का स्थापना दिवस है। 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना होने की वजह से 1950 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल को मनाए जाने की घोषणा की गई। तब से अब तक हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल को दुनिया भर में मनाया जा रहा है।
विश्व स्वास्थ्य दिवस 2025 की थीम
हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल को एक विशेष थीम के साथ मनाया जाता है। यह थीम वर्तमान में चल रही किसी गंभीर बीमारी या स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौती से संबंधित होती है। यह थीम एक साल के लिए होती है जिसका मतलब है कि एक साल तक दुनिया भर में मौजूद स्वास्थ्य से जुड़े सभी संगठन और सरकारें इस दिशा में युद्ध स्तर पर काम करें और समाधान का प्रयास करें। विश्व स्वास्थ्य दिवस 2025 की थीम है- “स्वस्थ शुरुआत, आशाजनक भविष्य (Healthy beginnings hopeful future)”।
यह मातृ एवं नवजात शिशु के स्वास्थ्य पर चलने वाला एक अभियान है, जिसमें मां और नवजात शिशुओं की मृत्यु दर रोकने और उन्हें एक स्वस्थ भविष्य देने की दिशा में ज़रूरी प्रयास सुनिश्चित करना है। इसके अंतर्गत गर्भधारण से लेकर प्रसव और प्रसव के बाद भी महिलाओं और बच्चों के दीर्घकालिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना है, जिससे एक स्वस्थ भविष्य का निर्माण संभव हो सके। इसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया की सभी सरकारी और गैर सरकारी संगठन मिलकर काम करना सुनिश्चित करेंगे।
विश्व स्वास्थ्य दिवस और महिलाएं
विश्व स्वास्थ्य संगठन के हालिया आंकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में हर साल लगभग 3 लाख महिलाओं को गर्भावस्था या प्रसव के कारण अपनी जान गंवा देना पड़ता है, जबकि 20 लाख से अधिक बच्चों की अपने जन्म के पहले महीने में ही मौत हो जाती है और लगभग 20 लाख बच्चे मृत पैदा होते हैं। यानी लगभग हर 7 सेकंड में 1 मौत ऐसी होती है जिसे प्रयास किया जाए तो रोका जा सकता है। वर्तमान रुझानों के अनुसार 2030 तक मातृत्व के दौरान होने वाली मृत्यु दर रोकने के लक्ष्य को पूरा करने में 5 में से 4 देश पीछे रह जाएंगे, जो कि अत्यंत चिंताजनक है।
माता और नवजात शिशुओं की मृत्यु वैसे तो दुनिया के सभी देशों में होती है लेकिन इससे होने वाली ज़्यादातर मौतें सबसे गरीब देशों में होती हैं जो पहले से ही अनेक प्रकार के संकटों का सामना कर रहे हैं। ऐसे में जब इनकी स्वास्थ्य से जुड़ी देखभाल सुविधाएं बंद हो जाती हैं या उनमें बाधा आ जाती है तो इसका सबसे ज़्यादा ख़तरा गर्भवती महिलाओं और शिशुओं पर पड़ता है, जिन्हें देखभाल की सबसे ज़्यादा जरूरत होती है।
इस साल का अभियान जो कि 2026 तक चलेगा, इसके लिए सरकारों और संगठनों से लेकर सामुदायिक केंद्रों की भागीदारी को सुनिश्चित करना है। ये गर्भावस्था से संबंधित सेवाएं, प्रसूति सेवाएं, माता और शिशुओं की उचित देखभाल, पोषण और जांच से जुड़ी हुई हैं। ग़ौरतलब है कि माता और नवजात शिशुओं की मृत्यु आमतौर पर जन्म के दौरान या उसकी तुरंत बाद होती है। यह सबसे जोख़िम भरा समय होता है जो दुनिया भर में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन न केवल गर्भावस्था, प्रसूति और मातृत्व संबंधी जटिलताओं बल्कि पोषण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और देखभाल पर भी ध्यान केंद्रित कर रहा है। यहां यह ध्यान देना ज़रूरी है कि स्वास्थ्य केवल बीमारी का न होना नहीं बल्कि शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहना और अपनी पूरी कार्य क्षमता का इस्तेमाल कर पाना है।
भारत में महिला स्वास्थ्य की वर्तमान स्थिति
भारत जैसे देशों में जहां महिलाओं की स्थिति पहले से ही दोयम दर्जे की बनी हुई है। जहां महिलाओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता सूची में सबसे आख़िर में जगह मिलती है वहां महिलाओं का स्वास्थ्य एक गम्भीर चुनौती बना हुआ है। भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य को समझने के लिए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) 2019-21 के आंकड़ों को समझना ज़रूरी है।
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार के 2021 के आंकड़ों के अनुसार, 15 से 49 वर्ष की महिलाओं में से 57.2 फ़ीसदी महिलाएं एनीमिया यानी खून की कमी से जूझ रही हैं। इसमें से 52.2 फीसद गर्भवती महिलाएं शामिल हैं। एनीमिया की सबसे बड़ी वजह पोषण की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधाएं पुरुषों की तुलना में 25 फीसद कम पहुंच पाती हैं, जबकि इनकी सेहत से जुड़ी जटिलताओं की वजह से इनको पुरुषों की तुलना में स्वास्थ्य देखभाल की ज़्यादा जरूरत होती है।
डाउन टू अर्थ में प्रकाशित “लिव वेल एंड स्टे हेल्दी: लाइफस्टाइल इज ए पावरफुल मेडिसिन,” 2022-23 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 51 फीसद महिलाएं पीरियड्स की अनियमितता, पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (पीसीओएस), हाइपोथायरायडिज्म, यूटीआई और फाइब्रॉएड, डायबिटीज और बांझपन जैसी सेहत से जुड़ी समस्याओं से जूझ रही हैं। यह भी पाया गया कि लगभग 41.7 फीसद महिलाओं को पांच साल से अधिक समय से पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (पीसीओएस) है।
डाउन टू अर्थ में ही 2023 में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के अनुसार हर साल देश में 24000 महिलाओं की मृत्यु गर्भावस्था या पुरुषों के दौरान उचित देखभाल न मिलने के कारण हो जाती है यानी हर दिन लगभग 66 महिलाओं की मृत्यु गर्भावस्था या ऐसी जुड़ी जटिलताओं की वजह से हो जाती है। नाइजीरिया के बाद भारत दुनिया का दूसरा ऐसा देश है जहां मातृ मृत्यु दर इतनी अधिक है।
महिला स्वास्थ्य के संदर्भ में यूएनएफपीए का 2022 का आंकड़ा भी महत्त्वपूर्ण है जो बताता है कि भारत में 15 से 49 वर्ष की केवल 45 फ़ीसद विवाहित महिलाएं यौन और प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर अपने संबंध में फ़ैसले ले पाती हैं। आंकड़ों से साफ पता चलता है कि भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य पर विशेष रूप से ध्यान देने की ज़रूरत है।
भारत में स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियां
भारत जैसे विकासशील देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति लगातार चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। ग़ौरतलब है कि भारत के केंद्रीय बजट 2025-26 में स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 1.97 फीसद आवंटन किया गया है, जो कि स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान ज़रूरतों और चुनौतियों को देखते हुए बेहद कम है। इसके साथ ही परिवार के स्तर पर देखा जाए तो महिलाओं के स्वास्थ्य को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। खास तौर पर ग्रामीण और आर्थिक रूप से कमज़ोर तबकों में महिलाओं की सेहत पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।
देश की पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में स्वास्थ्य और पोषण के मामले में महिलाएं सबसे आख़िरी पायदान पर आती हैं। त्याग, सेवा और समर्पण के नाम पर शोषण का महिमामंडन इस तरह किया जाता है कि महिलाओं के दिमाग में भी यह कंडीशनिंग घर कर जाती है और वह इसे ही अपनी नियति मानकर चलती रहती हैं। इस वजह से इनकी चुनौतियां कई गुना बढ़ जाती हैं। इसके साथ ही आज भी अवैतनिक घरेलू कामों के बोझ के चलते ज़्यादातर महिलाएं आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं बन पाती हैं, जिस वजह से अपने स्वास्थ्य की देखभाल ठीक तरीके से नहीं कर पाती हैं।
क्या हो सकती है आगे की राह?
सभी के लिए स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि ज़रूरतमंद और वंचित तबकों और समुदायों को अलग से चिन्हित किया जाए और उनके लिए विशेष तौर पर नीतियां और योजनाएं बनाई जाएं। सही जीवनशैली और पोषण के माध्यम से बहुत सारी बीमारियों से बचा जा सकता है। सरकार को इस दिशा में नियमित रूप से जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। आज के जमाने में सोशल मीडिया इस तरह के कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर फैलाने में ख़ास भूमिका निभा सकता है। इसके साथ ही किशोरियों, महिलाओं, नवजात शिशुओं और बच्चों पर ख़ास तौर से ध्यान देने की ज़रूरत है।
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, आंगनबाड़ी केंद्र और आशा (ASHA) कार्यकर्ता इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निभा सकते हैं। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बढ़ाए जाने और प्रशिक्षित तथा संवेदनशील स्वास्थ्य कर्मियों की जरूरत को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की विशेष ज़रूरतों के अनुसार देखभाल और स्वास्थ्य सुविधाएं सुनिश्चित करना ज़रूरी है, जिससे बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए स्वास्थ्य सुनिश्चित किया जा सके।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जब हम स्वास्थ्य की बात करते हैं तो इसमें शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही मानसिक स्वास्थ्य भी शामिल होता है। सभी के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच भी सुनिश्चित करना उतना ही ज़रूरी है जितना शारीरिक स्वास्थ्य, क्योंकि दोनों एक दूसरे से अंतर्संबंधित होते हैं।
विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल केवल जागरूकता बढ़ाने का अवसर ही नहीं बल्कि यह एक ऐसा मंच है जो सामूहिक प्रयासों को सही दिशा देने का भी काम करता है। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को निजी तौर पर भी इसमें सहयोग और भागीदारी बढ़ाने की ज़रूरत है। स्वास्थ्य से जुड़े जागरूकता कार्यक्रमों में शामिल होना, दूसरों को जागरूक करना, मरीजों की ज़िंदगी बचाने के लिए रक्तदान और अंगदान जैसे कार्यक्रमों में हिस्सा लेना इसके लिए बेहतरीन कदम साबित हो सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल यह याद दिलाता है कि स्वास्थ्य एक मूलभूत मानव अधिकार है और समावेशी विकास के लिए सभी को बिना किसी भेदभाव के मानक स्वास्थ्य सेवाएं सुनिश्चित करना आवश्यक है।
© प्रीति खरवार