जलियांवाला बाग हत्याकांड 13 अप्रैल 1919: एक ऐतिहासिक त्रासदी

जलियांवाला बाग हत्याकांड 13 अप्रैल 1919: एक ऐतिहासिक त्रासदी

 

जलियांवाला बाग हत्याकांड 13 अप्रैल 1919 इतिहास में दर्ज़ एक तारीख़ ही नहीं बल्कि एक ऐसा ज़ख्म है जो आज भी करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिलों को आक्रोश और टीस से भर देता है। जलियांवाला बाग की शांत दोपहर में हो रही सभा में अचानक से हुई गोलियों की बरसात ने हमेशा के लिए मंज़र को बदल कर रख दिया। इस घटना के सैकड़ों साल बीत जाने के बाद भी निर्दोष लोगों की चीखें यहां की मिट्टी में आज भी गूंजती महसूस होती हैं। इस भयानक नरसंहार में इंसानों का ही नहीं बल्कि इंसानियत का भी क़त्ल हुआ, जिसके लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश हुक़ूमत ने आज तक भारत से औपचारिक माफ़ी तक नहीं मांगी है।

 

जलियांवाला बाग हत्याकांड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

1914 से 18 तक चले पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारत से बड़े पैमाने पर सैनिक और आर्थिक संसाधनों का इस्तेमाल किया लगभग 13 लाख भारतीय सैनिकों ने युद्ध में हिस्सा लिया, जिसमें हजारों को अपनी जान गंवानी पड़ी। महात्मा गांधी ने इस विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार की सहायता के लिए सैनिकों को भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित किया, जिस वजह से उन्हें भर्ती एजेंट तक कहा जाने लगा था।

इसमें भारतीय सैनिकों के शामिल होने से भारतीयों को उम्मीद थी कि उनके इस योगदान के बदले ब्रिटिश सरकार भारतीयों को स्वशासन की तरफ ले जाएगी या कम से कम राजनीतिक अधिकारों में बढ़ोत्तरी करेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। पहला विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद 1919 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में होने वाली क्रांतिकारी गतिविधियों के दमन के लिए रॉलेट एक्ट का प्रावधान किया, जिसे “बिना अपील, बिना वकील और बिना दलील का क़ानून” या “काला क़ानून” कहा गया।

इसके विरोध में देश भर में आंदोलन और तेज हो गया 6 अप्रैल 1919 को महात्मा गांधी ने रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। पंजाब में यह आंदोलन चरम पर था, क्योंकि पहले विश्व युद्ध के दौरान भारी कर और जबरन सैनिकों की भर्ती की वजह से वहां पर पहले से ही भारी असंतोष का माहौल था।

पंजाब में सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू जैसे नेताओं ने रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ जनसभाएं आयोजित की। ब्रिटिश अधिकारियों ने इन नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जिससे अमृतसर में तनाव और बढ़ गया। इस दौरान 10 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर में विरोध प्रदर्शन के दौरान ब्रिटिश सैनिकों की गोलीबारी से कई लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए।

 

जलियांवाला बाग हत्याकांड 13 अप्रैल 1919

जलियांवाला बाग अमृतसर में मौजूद जल्ली नामक व्यक्ति की संपत्ति थी, जिसके नाम पर इसे जलियांवाला बाग कहा जाता था। 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का त्योहार था, जिस अवसर पर महिलाओं और बच्चों समेत हजारों लोग जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा में शामिल होने आए थे। इसका उद्देश्य सैफुद्दीन किचलू और डॉक्टर सत्यपाल की गिरफ़्तारी का विरोध करना था और रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना था। इसके अलावा बहुत सारे लोग ऐसे भी थे जो अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में बैसाखी का त्योहार मनाने के बाद जलियांवाला बाग में आराम कर रहे थे।

उस समय वहां के तत्कालीन ब्रिगेडियर माइकल ओ डायर ने इस सभा को ग़ैरकानूनी बताते हुए सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग को चारों ओर से घेर लिया और बिना किसी चेतावनी के गोली चलाने का आदेश दे दिया। ब्रिटिश सैनिकों ने लगातार हजारों गोलियां बरसाई, जिसके निशान आज भी वहां की दीवारों पर अंकित हैं। ब्रिटिश सैनिकों ने निकलने के सभी रास्ते बंद कर रखे थे। जान बचाने के लिए लोग दीवारों पर चढ़े, कुछ कुएं में कूद गए लेकिन ज़्यादातर अपनी कोशिशों में कामयाब नहीं हुए और उन्हें जान गंवानी पड़ी। इसके अलावा, घायलों को इलाज़ की सुविधा भी नहीं दी गई और उनमें से ज़्यादातर ने तड़प तड़प कर अपनी जान गंवा दी।

 

जलियांवाला बाग हत्याकांड में मौत का आंकड़ा: कितने हुए थे शहीद?

जलियांवाला बाग हत्याकांड 13 अप्रैल में शहीद हुए लोगों की वास्तविक संख्या को लेकर आज भी विवाद बना हुआ है। ब्रिटिश सरकार ने जलियांवाला बाग हत्याकांड की जांच के लिए हंटर कमेटी का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट में 379 लोगों की मौत और 1200 लोगों की घायल होने की बात कही। वहीं ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की जांच समिति जिसमें मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास समेत कई दूसरे नेता शामिल थे, इन्होंने मृतकों की वास्तविक संख्या 1000 से अधिक होने का अनुमान लगाया था।

मदन मोहन मालवीय और सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी मृतकों की वास्तविक संख्या 1000 से अधिक होने का अनुमान लगाया। इसके अलावा आधुनिक इतिहासकारों ने जैसे कि किम वैगनर ने अपनी किताब “Jallianwala Bagh: An Empire of Fear and the Making of the Amritsar Massacre” में जलियांवाला बाग हत्याकांड में मारे गए लोगों की वास्तविक संख्या 500 से 1000 के बीच होने का अनुमान लगाया।

 

आंकड़ों में इस तरह के अंतर होने के पीछे पर्याप्त कारण मौजूद हैं। ब्रिटिश सरकार की मृतकों की संख्या कम करके दिखाने के पीछे की मंशा स्वाभाविक है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी और आलोचना से बचा जा सके। इसके अलावा घटना के बाद ब्रिटिश सरकार ने कोई व्यवस्थित गिनती नहीं करवाई और ठीक से इसका रिकॉर्ड भी नहीं रखा जिस वजह से असमंजस की स्थिति बनी रही। वहीं भारतीय जांच कमेटी के पास सीमित संसाधन और अधिकार होने की वजह से ठीक से जांच नहीं कर पाई।

जलियांवाला बाग हत्याकांड का परिणाम और प्रभाव

जलियांवाला बाग हत्याकांड में भारतीय जनमानस में ब्रिटिश शासन के खिलाफ आक्रोश भर दिया और आज़ादी की लड़ाई को और तेज करने में अहम भूमिका निभाई। इस हत्याकांड ने भारतीय क्रांतिकारियों में एकता और राष्ट्रीय चेतना की भावना को भी मजबूत किया। इसका नतीजा यह हुआ की महात्मा गांधी के द्वारा शुरू किया गया असहयोग आंदोलन पूरे देश भर में फैल गया और लोगों ने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।

इसके विरोध में महात्मा गांधी ने ‘कैसर-ए-हिंद’ की उपाधि ब्रिटिश सरकार को वापस कर दी। इसी तरह रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई ‘सर’ की उपाधि को लौटा दिया। सी शंकरन नायर ने वायसराय के कार्यकारी पद से इस्तीफा दे दिया और जमनालाल बजाज ने ‘राय बहादुर’ की उपाधि वापस कर दी। यह ब्रिटिश सरकार की क्रूर और दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध जताने का इनका एक तरीका था। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ब्रिटिश सरकार की आलोचना होने लगी, जिस वजह से भारत की आज़ादी की लड़ाई को विश्व स्तर पर समर्थन मिला।

 

इस घटना ने पंजाब के सरदार उधम सिंह के मन में आक्रोश और बदले की भावना भर दी और इसके 21 साल बाद सरदार उधम सिंह ने 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में जाकर और जलियांवाला बाग हत्याकांड के ज़िम्मेदार माइकल ओ डायर के ऊपर रिवॉल्वर से गोलियां चलाकर हत्या कर दी।

ग़ौरतलब है कि हत्या के बाद उधम सिंह ने भागने की कोशिश नहीं की और मौके पर ही आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद इन्हें गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया और मुक़दमे का फ़ैसला आने के बाद 4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी मानते हुए फांसी की सज़ा सुनाई गई और 31 जुलाई 1940 को लंदन में ही फांसी दे दी गई।

यहां एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मुकदमे के दौरान शहीद उधम सिंह ने अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आज़ाद बताया था, जो भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब और धार्मिक एकता को दर्शाता है। सरदार उधम सिंह के अवशेष 1974 में भारत लाए गए और पंजाब के सुनाम में अंतिम संस्कार किया गया। उनकी अस्थियां आज भी जलियांवाला बाग के स्मारक में मौजूद हैं। जलियांवाला बाग की दीवारों पर गोलियों के निशान और वह कुआं जहां लोग अपनी जान बचाने के लिए कूदे थे आज भी मौजूद है।

 

दुनिया में आज भी जहां कहीं भी अधिनायकवादी शासन के द्वारा ताक़त का अंधाधुंध इस्तेमाल कर नागरिकों की आज़ादी का दमन किया जा रहा है, वहां जलियांवाला बाग एक चेतावनी की तरह मौजूद है। यह औपनिवेशिक बर्बरता, बलिदान, आक्रोश और आज़ादी का प्रतीक बन चुका है। जलियांवाला बाग हत्याकांड महज एक ऐतिहासिक घटना नहीं बल्कि हमारी राष्ट्रीय चेतना और एकता का भी अटूट हिस्सा बन चुका है।

© प्रीति खरवार

 

https://www.britannica.com/event/Jallianwala-Bagh-Massacre

https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%97_%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1

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Priti Kharwar

प्रीति खरवार एक स्वतंत्र लेखिका हैं, जो शोध-आधारित हिंदी-लेखन में विशेषज्ञता रखती हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में परास्नातक प्रीति सामान्य ज्ञान और समसामयिक विषयों में विशेष रुचि रखती हैं। निरंतर सीखने और सुधार के प्रति समर्पित प्रीति का लक्ष्य हिंदी भाषी पाठकों को उनकी अपनी भाषा में जटिल विषयों और मुद्दों से सम्बंधित उच्च गुणवत्ता वाली अद्यतन मानक सामग्री उपलब्ध कराना है।

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