Durgabai Deshmukh in Hindi : दुर्गाबाई देशमुख, जन्मदिन 15 जुलाई

Durgabai Deshmukh : दुर्गाबाई देशमुख, जन्मदिन 15 जुलाई

देश की जानी-मानी वकील, स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता Durgabai Deshmukh भारत के महान क्रांतिकारियों में से एक हैं। इन्होंने संविधान निर्माण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। समय से आगे की सोच रखने वाली दूरदर्शी दुर्गाबाई देशमुख का जन्म 15 जुलाई 1909 राजमुंदरी, आंध्र प्रदेश में हुआ था। इनकी माता का नाम कृष्णवेनम्मा और पिता रामाराव थे।

इनके बचपन में ही पिता का देहांत हो गया और इनका पालन पोषण पूरी तरह से मां कृष्णवेनम्मा की देखरेख में हुआ। कृष्णावेनम्मा सक्रिय कॉन्ग्रेस कार्यकर्ता थीं और स्वदेशी आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थीं। दुर्गाबाई भी मां के साथ कार्यक्रमों में जाया करती थी। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी आंदोलन के समय ये घर-घर जाकर खद्दर बेचती थीं।

 

 

शिक्षा-

दुर्गाबाई देशमुख बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थीं, परंतु गांधी जी के स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित होकर इन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार किया और स्कूल छोड़ दिया। मात्र 12 वर्ष की उम्र में अपने एक पड़ोसी शिक्षक की सहायता से इन्होंने बालिका विद्यालय की नींव रखी। यहां हिंदी भाषा को बढ़ावा दिया जाता था।

दुर्गाबाई देशमुख ने आंध्र विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में बी.ए. और एम.ए. की पढ़ाई की। इसके पीछे एक दिलचस्प किस्सा है, Durgabai Deshmukh बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से राजनीति की पढ़ाई करना चाहती थीं । लेकिन इसके संस्थापक मदन मोहन मालवीय का मानना था कि राजनीति विषय महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं है, इस प्रकार इन्हें दाखिला नहीं मिला।

इसी तरह, आंध्र विश्वविद्यालय में भी लड़कियों के लिए हॉस्टल न होने की वजह से दाखिला मिलने में कठिनाई हो रही थी लेकिन दुर्गाबाई कहां हार मानने वाली थीं ! इन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलकर बात की और इस विश्वविद्यालय में पढ़ने की इच्छुक छात्राओं के साथ मिलकर गर्ल्स हॉस्टल की व्यवस्था की। इस प्रकार दुर्गाबाई देशमुख के प्रयासों से यहां पर स्त्री शिक्षा की शुरुआत हुई। 

यह इतनी मेधावी थीं कि इन्होंने एम.ए. में 5 मेडल हासिल किए थे। इसके साथ ही इन्हें लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से पढ़ने के लिए टाटा स्कॉलरशिप भी मिली थी। परंतु द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के कारण वे लंदन पढ़ने जा न सकीं। 1942 में दुर्गाबाई ने मद्रास विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली और हत्या के मुकदमे में वकालत करने वाली पहली महिला वकील बनकर अभूतपूर्व काम किया।

 

Durgabai Deshmukh का व्यक्तिगत जीवन-

Durgabai Deshmukh का विवाह महज 8 वर्ष की उम्र में जमींदार सुब्बाराव से तय कर दिया गया था। परंतु इन्होंने इसे मानने से इनकार कर दिया और 15 वर्ष की उम्र में ख़ुद को इस शादी से पूरी तरह अलग कर लिया। उस समय समाज में प्रचलित बाल-विवाह का इस तरह से मुखर विरोध यह दर्शाता है कि दुर्गाबाई में गज़ब का साहस और दृढ़ता थी। इन्होंने सुब्बाराव को किसी और से विवाह करने का सुझाव दिया। तब सुब्बाराव ने मायम्मा नामक लड़की से विवाह कर लिया।

दुर्भाग्य से 1941 में सुब्बाराव की अचानक मौत हो गई और मायम्मा के साथ ससुराल के लोग बुरा व्यवहार करने लगे। ऐसे में दुर्गाबाई देशमुख ने मायम्मा को अपने पास बुलाया और आंध्र महिला सभा से शिक्षक की ट्रेनिंग दिलवाई। इस तरह मायम्मा को स्वावलंबी बनने में काफी सहयोग किया और मायम्मा हैदराबाद के एक रीजनल हैंडीक्राफ्ट इंस्टिट्यूट में शिक्षिका बन गईं। इन्होंने ख़ुद को पूरी तरह से देश सेवा और समाज सेवा में लगा दिया और 1953 में भारत के पहले आरबीआई गवर्नर चिंतामणि देशमुख से विवाह किया। नरसनपेटा (श्रीकाकुलम) में 9 मई 1981 को दुर्गाबाई देशमुख ने अपनी ज़िंदगी की आख़िरी सांस ली।

 

सामाजिक योगदान-

दुर्गाबाई का बचपन पूरी तरह से राजनैतिक माहौल में बीता। उस समय ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन चरम पर था। मां कृष्णवेनम्मा के साथ सामाजिक राजनीतिक आंदोलन में बचपन से ही सक्रिय रूप से भाग लेने वाली दुर्गाबाई ने अपना पूरा जीवन समाज की भलाई के लिए समर्पित कर दिया। 2 अप्रैल 1921 को काकीनाडा में महात्मा गांधी की एक सभा होने वाली थी। उस समय दुर्गाबाई महज 12 वर्ष की थी जब उन्होंने गांधी जी से मिलकर देवदासी जैसी कुप्रथा को ख़त्म करने के लिए सहयोग करने का आग्रह किया।

गांधी जी की सभा में Durgabai Deshmukh ने हिंदी से तेलुगू अनुवाद कर काफी प्रसिद्धि हासिल की। इसके बाद इन्होंने और भी सभाओं में गांधी जी के अनुवादक का कार्यभार संभाला। मात्र 14 वर्ष की अवस्था में दुर्गाबाई ने अपने छोटे से घर के एक हिस्से में बालिका पाठशाला की शुरुआत की जहां वे लड़कियों को हिंदी सिखाती थीं। बाद में स्थानीय लोगों के सहयोग से इसका विस्तार किया और हिंदी के साथ साथ चरखा चलाने और कपड़ा बुनने का प्रशिक्षण भी प्रारंभ किया।

इसी समय हिंदी साहित्य सम्मेलन की एक प्रदर्शनी में 14 वर्षीय दुर्गाबाई को वालंटियर बनने का मौका मिला। इन्होंने जवाहरलाल नेहरू से टिकट मांग लिया जबकि वह इन्हे पहचानती थीं। आयोजकों के दखल के बावजूद टिकट खरीद कर ही नेहरू को अंदर जाने का मौका मिला। ये  वाकया इनकी कर्तव्यपरायणता और सत्यनिष्ठा को प्रदर्शित करता है।

 

1923 में बालिका विद्यालय की स्थापना के साथ ही Durgabai Deshmukh ने स्त्री शिक्षा और सामाजिक सरोकारों के क्षेत्र में अपना कदम रखा। इसके लिए महात्मा गांधी ने इन्हें स्वर्ण पदक भी प्रदान किया था। स्त्री अधिकारों के लिए इन्होंने 1938 में आंध्र महिला सभा की स्थापना की जो अब भी महिला से संबंधित मुद्दों पर सक्रिय रूप से काम कर रहा है। 1948 में तेलुगु बच्चों की शिक्षा के लिए दुर्गाबाई ने आंध्र प्रदेश एजुकेशनल सोसाइटी की स्थापना की।

1962 में गरीबों की चिकित्सा हेतु नर्सिंग होम खोला, जो बाद में चलकर दुर्गाबाई देशमुख हॉस्पिटल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके अलावा तकनीकी विद्यालय तथा नेत्रहीनों के लिए विशेष विद्यालय की स्थापना के लिए भी दुर्गाबाई ने अथक प्रयास किया। इन्होंने प्लेग और हैजा जैसी महामारी के दौरान निःस्वार्थ भाव से दिन-रात रोगियों की सेवा की और जागरूकता अभियान फैलाया। सामाजिक क्षेत्र में दुर्गाबाई देशमुख का अमूल्य योगदान अविस्मरणीय है।

 

Durgabai Deshmukh का राजनैतिक योगदान-

बचपन से ही क्रांतिकारी रही Durgabai Deshmukh ने नमक सत्याग्रह में सक्रिय सहभागिता की जिसके परिणामस्वरुप 25 मई 1930 को पहली बार गिरफ़्तारी हुई और 1930-33 के बीच इन्हें तीन बार जेल जाना पड़ा। इसके बावजूद दुर्गाबाई देशमुख का देशसेवा के प्रति जज़्बा कम न हुआ बल्कि ये स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगीं। जेल में रहने के दौरान इन्होंने महिला बंदियों के प्रति किया जाने वाला अत्याचार और शोषण अपनी आंखों से देखा।

इन्होंने यह फ़ैसला किया कि ये वकालत की पढ़ाई करेंगी और इनके जैसी तमाम महिलाओं के लिए कानूनी लड़ाई लड़ेंगी। बाद में मद्रास विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई कर यह सक्रिय रूप से वकालत करने लगीं और विशेषकर महिला अधिकारों के लिए कानूनी सहायता प्रदान करने लगीं। इनका पहला मुकदमा एक महिला को संपत्ति में अधिकार दिलाने से संबंधित था। इसके साथ ही दुर्गाबाई देशमुख पहली महिला वकील थीं, जिन्होंने हत्या के मुकदमे में कोर्ट में बहस की।

 

Durgabai Deshmukh की प्रतिभा और जज़्बे को देखते हुए इन्हें 1946 में मद्रास प्रांत की तरफ से संविधान सभा का सदस्य चुना गया। ग़ौरतलब है कि संविधान सभा के अध्यक्ष पैनल में ये एकमात्र महिला सदस्य थीं। संविधान सभा में होने वाली बहसों और चर्चाओं में दुर्गाबाई सक्रिय रूप से सहभागिता करती थीं।

डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित हिंदू कोड बिल और महिलाओं की संपत्ति के अधिकार वाले मसौदे पर दुर्गाबाई देशमुख ने भरपूर समर्थन किया था। बाद में इन्हें योजना आयोग का सदस्य बनाया गया और इन्होंने सामाजिक कल्याण पर नीतियां बनाई। जिस पर आगे चलकर 1953 में केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना हुई। 1958 में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद की स्थापना हुई और उसकी पहली अध्यक्ष बनने का गौरव भी इन्हें प्राप्त हुआ। 

 

पुरस्कार एव सम्मान-

देश और समाज के लिए किए गए योगदानों को देखते हुए Durgabai Deshmukh को कई सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हुए, जिसमें सबसे प्रमुख है- 1975 में भारत सरकार द्वारा दिया गया पद्म विभूषण अवॉर्ड। इसके अलावा इन्हें पॉल जी हाफ मैन पुरस्कार, नेहरू साक्षरता पुरस्कार, यूनेस्को पुरस्कार, जीवन पुरस्कार एवं जगदीश पुरस्कार इत्यादि से भी सम्मानित किया गया।

 

महत्वपूर्ण पुस्तकें-

The stone that speaketh (1980)

Chintamani and I (an autobiography)- 1980

 

इस प्रकार एक समर्पित समाजसेवी, कुशल राजनीतिज्ञ, प्रख्यात वकील और स्त्रीवादी Durgabai Deshmukh भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में एक जाना-माना नाम था, जिन्होंने बेहद छोटी सी उम्र में बड़े क्रांतिकारी कदम उठाए। इन्होंने समाज के विभिन्न क्षेत्रों जैसे- शिक्षा, राजनीति, चिकित्सा,सामाजिक न्याय में अपना योगदान दिया। इन्होंने ऐसे दौर में अपनी अलग पहचान बनाई जब एक स्त्री की आवाज़ को अनसुना कर दिया जाता था। राजनीति के क्षेत्र में इनका अनुकरणीय योगदान मील के पत्थर की तरह है, जो सदियों से समावेशी विकास और समान न्याय के लिए पथ-प्रदर्शक का काम कर रहा है।

 

© प्रीति खरवार

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