Savitribai Phule Jayanti: सावित्रीबाई फुले जयन्ती
इतिहास के पन्नों में ऐसे अनगिनत नाम दर्ज़ हैं जिन्होंने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। इन्होंने रूढ़िवादी परंपराओं में जकड़े समाज को मुक्ति का मार्ग दिखाया। प्रगतिशीलता और बदलाव की ऐसी विरासत दी, जिस पर चलकर पीढ़ियां स्वयं एवं समाज के विकास के लिए आगे बढ़ रही हैं। परिवर्तन एक दिन में नहीं आता, लेकिन इसकी नींव एक दिन में ही रखी जाती है।
प्रकृति परिवर्तनशील है तभी इसका अस्तित्व है। कोई भी तथ्य, नियम या परम्परा सार्वकालिक नहीं होती, देश काल परिस्थिति एवं समय के अनुसार प्रासंगिकता में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। जिस प्रकार ठहरा हुआ जल एक अंतराल के बाद दूषित हो जाता है जबकि प्रवाहमान जल सदैव साफ रहता है। इसी तरह से समय, परिस्थिति और प्रासंगिकता के अनुसार समय-समय पर समीक्षा, आकलन और आवश्यकतानुसार अनुकूलन व परिवर्तन करने से ही एक स्वस्थ समाज का अस्तित्व संभव है।
आज हम बात करने वाले हैं ऐसी एक शख़्सियत के बारे में जिन्होंने परंपरागत रूढ़ियों में जकड़े भारतीय समाज में क्रांति का बिगुल बजा दिया। भारत की प्रथम महिला शिक्षक Savitribai Phule का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। शिक्षा के क्षेत्र में इन्होंने ऐसे उल्लेखनीय कार्य किये, जिसकी नींव पर आज भी शिक्षा व्यवस्था की इमारत गढ़ी जा रही है।
Savitribai Phule का आरंभिक जीवन-
Savitribai Phule का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा स्थित नायगांव में हुआ था। यह पुणे से महज 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इनकी माता लक्ष्मीबाई और पिता खानदोजी नैवेसे थे। मात्र 9 वर्ष की अवस्था में 1840 में इनका विवाह 13 वर्षीय ज्योतिबा फुले से हो गया। सावित्री को बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक था। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि, एक बार किसी मिशनरी ने अंग्रेजी की किताब दी थी और बालिका सावित्री ने उत्सुकता से उलट-पुलट कर देख रही थी। तब उनके पिता ने यह कहा था कि ‘यह उच्च वर्ग के पुरुषों के काम की वस्तु है, तुम्हारे लिए नहीं है।’
इस बात पर सावित्री को बुरा लगा पर उस समय उनके पास इस बात का कोई उत्तर न था। हालांकि उस समय भारतीय समाज महिला शिक्षा के मामले में रूढ़िवादी और पिछड़ी मानसिकता से ग्रस्त था। उस समय सामाजिक नियमों, कानूनों पर धार्मिक ग्रंथो का प्रभाव था। विशेषाधिकार प्राप्त एक वर्ग अन्य वर्गों के प्रति भेदभाव पूर्ण रवैया अपनाता था। मनुस्मृति सहित तमाम धार्मिक ग्रंथो का बोलबाला था, जिसके अनुसार कथित तौर पर उच्च वर्ण के पुरुषों को ही शिक्षा का अधिकार था। सावित्रीबाई को यह बात खटकती थी।
शिक्षा-
Savitribai Phule का विवाह ज्योति राव के साथ हुआ था जो कि स्वयं एक क्रांतिकारी विचारधारा के व्यक्ति थे। ये शिक्षा, समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के बहुत बड़े पैरोकार थे। सावित्री को जब ज्योतिबा का साथ मिला तो इन्हें अपने पढ़ने लिखने का सपना पूरा करने का एक अच्छा मौका मिला। ज्योति राव खुद और उनके मित्रगण सखाराव यशवंत परांजपे तथा केशव शिवराम मावलकर ने सावित्री की शिक्षा का उचित इंतज़ाम किया।
सावित्री के साथ ही ज्योतिराव की बहन सगुनाबाई भी पढ़ा करती थीं। प्रारंभिक स्तर की शिक्षा ज्योतिबा ने घर पर दी। शिक्षा को लेकर सावित्री के जुनून को देखते हुए पुणे के एक स्कूल में दाखिला दिलाया। बाद में Savitribai Phule शिक्षक की ट्रेनिंग के लिए अमेरिकन मिशनरी स्कूल Miss Farar’s Institute, अहमदनगर गईं।
Savitribai Phule का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान-
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद Savitribai Phule ने अपने जैसी तमाम लड़कियों के लिए विद्यालय के द्वार खोलने का फैसला किया। उस समय लड़कियों के लिए स्कूल तो दूर की बात है, इनके लिए पढ़ाई तो शायद किसी ने सपने में भी न सोचा था। ऐसे में सावित्री ने वह अभूतपूर्व काम किया जिसने शिक्षा जगत में इनका नाम अमर कर दिया। 5 सितंबर, 1848 में सावित्री ने 9 छात्राओं के साथ मिलकर पुणे में देश के पहले बालिका विद्यालय की स्थापना की। ये देश की प्रथम महिला प्रधानाचार्य भी बनीं।
इसके बाद एक साल के अंदर 5 नए विद्यालयों की स्थापना की। कुल मिलाकर सावित्री ने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलाकर कुल 18 विद्यालयों की स्थापना की। इसमें ‘पैरंट्स टीचर मीटिंग’ PTM का प्रावधान भी था जो इतना प्रभावशाली है कि आज भी विद्यालयों द्वारा अपनाया जा रहा है। इन स्कूलों में सभी जाति और धर्म के बच्चे शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। इन्होंने विशेषकर लड़कियों और सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया।
इन्होंने पहला ‘किसान विद्यालय’ भी खोला और मजदूर किसानों के लिए ‘रात्रि विद्यालय’ की व्यवस्था भी की। क्योंकि इन्हें दिन में समय नहीं मिल पाता था इसलिए संध्याकालीन एवं रात्रि कालीन कक्षाओं में इनके लिए पढ़ाई का इंतज़ाम किया गया था।
Savitribai Phule का साहित्यिक योगदान-
मराठी की आदि कवयित्री के तौर पर जानी जाने वाली Savitribai Phule ने क्रांतिकारी लेखन में भी अपना योगदान दिया। इन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को जागरुक करने का प्रयास किया। इन्होंने अपने लेखन में बार-बार ‘जागो, उठो और शिक्षित करो, परंपराओं को तोड़ो – आज़ाद करो’ के नारे का प्रयोग किया। इसे वे जन-चेतना और जन-जागरुकता के लिए इस्तेमाल करती थीं।
वह जाति प्रथा को ख़त्म करने के लिए अंग्रेजी शिक्षा की वकालत करती थी इसके लिए एक कविता में उन्होंने लिखा था- “जाति को ख़त्म करने के लिए अंग्रेजी सीखें,”। 1854 में महज 23 वर्ष की उम्र में उनका पहला काव्य संकलन ‘काव्या फुले’ प्रकाशित हुआ। 1891 में “बावन काशी सुबोध रत्नाकर” हुआ जो मराठी साहित्य में अग्रणी स्थान रखता है। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सबसे ज्यादा लोकप्रिय और प्रसिद्ध कविता थी-
“जाओ, शिक्षा प्राप्त करो”
“आत्मनिर्भर बनो, मेहनती बनो
काम करो, बुद्धि और धन इकट्ठा करो,
ज्ञान के बिना सब खो जाता है
हम बुद्धि के बिना जानवर बन जाते हैं,
अब और बेकार मत बैठो,
जाओ, शिक्षा प्राप्त करो,
उत्पीड़ितों और त्यागे हुए लोगों के
दुख को समाप्त करो,
तुम्हें एक सुनहरा मौका मिला है
सीखना तो सीखो और जाति की बेड़ियाँ तोड़ो।
ब्राह्मण के धर्मग्रन्थों को शीघ्रता से फेंक दो।”
सामाजिक चुनौतियां एवं व्यवधान-
लड़कियों के लिए स्कूल खोलने से Savitribai Phule की चुनौती ख़त्म नहीं हुई बल्कि और ज़्यादा बढ़ गई। पारंपरिक रूढ़िवादी माहौल में लोग अपनी बच्चियों को पढ़ने भेजना ही नहीं चाहते थे। रही सही कसर धर्म के स्वघोषित ठेकेदारों ने पूरी कर दी। इन सब ने मिलकर सावित्री और लड़कियों की शिक्षा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई धर्म और परंपरा के विरुद्ध माने जाने वाली बात थी।
सावित्री और ज्योतिबा पर तमाम तरीके से दबाव बनाया गया परंतु इन्होंने शिक्षा के प्रति अपनी मुहिम कमज़ोर नहीं होने दी। यहां तक की 1849 में कट्टरपंथी रूढ़िवादियों के दबाव के चलते ज्योतिबा के पिता ने इन दोनों को घर से निकाल दिया। ऐसे में इनका साथ दिया ज्योतिबा के मित्र उस्मान शेख और उनकी पत्नी फातिमा शेख ने। इन दोनों ने सावित्री और ज्योतिबा को अपने घर में जगह दी। इसके साथ ही स्कूल खोलने के लिए भी ज़मीन का बंदोबस्त किया।
यहां Savitribai Phule की मुलाक़ात फातिमा से हुई और समान विचारधारा के कारण दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। उल्लेखनीय है कि फातिमा शेख भी उस समय एकमात्र मुस्लिम महिला शिक्षक के तौर पर काफी प्रसिद्ध थीं। अब सावित्रीबाई और फातिमा शेख मिलकर इस मुहिम को दोगुनी उत्साह के साथ अंजाम दे रही थीं।
ऐसे में रूढ़िवादी कट्टरपंथियों ने इन्हें रोकने की भरसक कोशिश की। सावित्री जब घर से स्कूल के लिए निकलतीं तो ये उन पर पत्थर, कीचड़, गोबर आदि फेंकते और अपशब्द कहते। पर इससे भी सावित्री का मनोबल नहीं टूटा। इन्होंने एक उपाय निकाला और एक अतिरिक्त साड़ी ले जाती थीं, जो स्कूल जाने पर बदल लेती और अपने काम में लगन और उत्साह के साथ जुट जाती थीं।
अन्य सामाजिक कार्य-
Savitribai Phule न सिर्फ़ भारतीय समाज में स्त्री शिक्षा की अग्रदूत थी बल्कि समाज की सड़ी-गली परंपराओं और रूढ़ियों का भी इन्होंने तीखा विरोध किया। समाज में प्रचलित अमानवीय प्रथाओं जैसे-सती प्रथा, विधवा-प्रथा, भ्रूण हत्या, बाल-विवाह, जाति-प्रथा इत्यादि के खिलाफ भी ज़मीनी स्तर पर काम किया। इन्होंने छुआछूत, भेदभाव आदि का न सिर्फ़ खुलकर विरोध किया बल्कि पीड़ितों के लिए व्यक्तिगत स्तर पर मदद भी मुहैया करवाया।
अनचाहे बच्चों के जन्म और सुरक्षित देखभाल के लिए ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ की स्थापना भी की। इसमें ऐसी गर्भवती महिलाएं आकर रह सकती थीं, जिन्हें उनके अपने परिवार और समाज ने त्याग दिया था। सावित्री ने ऐसी ही एक स्त्री काशीबाई को अपने संस्था में रखा और उचित देखभाल की जो ब्राह्मण वर्ग से ताल्लुक रखती थी। उसके बच्चे को दत्तक पुत्र के रूप में ग्रहण किया जिसका नाम यशवंत रखा।
ध्यातव्य है कि सावित्रीबाई और ज्योतिबा की कोई संतान न थी। इनका ख़याल था कि अपनी ख़ुद की संतान हो जाने पर ये शिक्षा और सामाजिक सरोकारों के अपने मिशन पर पूरा ध्यान केंद्रित नहीं कर पाएंगे। 24 सितंबर 1873 में सावित्री और ज्योतिबा ने मिलकर ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था का गठन किया। इसका उद्देश्य समाज में छुआछूत, भेदभाव, जाति प्रथा, कर्मकांड इत्यादि कुरीतियों को ख़त्म करना था। इस संस्था के तहत पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसंबर 1873 में हुआ था। 1890 में ज्योतिबा के देहांत के बाद इस संस्था के कार्यों को सावित्रीबाई ने पूरे मनोयोग और समर्पण से आगे बढ़ाया।
Savitribai Phule और ज्योतिबा फुले का दत्तक पुत्र यशवंत आगे चलकर डॉक्टर बना और अपने माता पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए ख़ुद को पूरी तरह समाज सेवा में समर्पित कर दिया। 1897 में जब प्लेग जैसी भयंकर महामारी का प्रकोप हुआ तब इन्होंने खुद को मरीजों की सेवा में झोंक दिया। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार प्लेग से ग्रस्त रोगियों के साथ बहुत ही अमानवीय व्यवहार करती थी। उन्हें सबसे अलग कर दिया जाता था और एक तरह से मरने के लिए छोड़ दिया जाता था।
ऐसे में अपने पुत्र डॉक्टर यशवंत के साथ मिलकर सावित्रीबाई प्लेग रोगियों की सेवा में जुट गईं। इस तरह इन्होंने सैकड़ो रोगियों की जान बचाई। परंतु आखिर में प्लेग से ग्रस्त एक बच्चे की सेवा के दौरान सावित्रीबाई ख़ुद संक्रमित हो गईं और 10 मार्च 1897 वह क्रूर दिन था, जब सावित्रीबाई ने इस संसार को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। इस तरह भारतीय इतिहास के एक युग का अंत हो गया।
इस तरह Savitribai Phule का नाम भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण शख़्सियत, प्रख्यात स्त्रीवादी, सामाजिक क्रांतिकारी के तौर पर दर्ज़ हो गया। इन्होंने 19 शताब्दी के दौरान स्त्री शिक्षा और अधिकारों के लिए बहुत बड़े स्तर पर जन जागरुकता फैलाई और अपने कार्यों के माध्यम से जीवन भर अपने मिशन को आगे बढ़ाया। इन्होंने भेदभावपूर्ण कठोर रूढ़िवादी, पारंपरिक, दमनकारी सामाजिक मानदंडों को तब चुनौती दी जब इसके बारे में कोई सोच ही नहीं सकता था । सबके लिए समान अवसर और मानव अधिकारों के प्रति अटूट निष्ठा, अदम्य इच्छाशक्ति व प्रतिबद्धता सदियों तक पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।
© प्रीति खरवार
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