महादेवी वर्मा रचित “तुम मुझ में प्रिय, फिर परिचय क्या” कविता की मूल संवेदना

महादेवी वर्मा रचित तुम मुझ में प्रिय, फिर परिचय क्या कविता की मूल संवेदना

 

महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य का एक अत्यंत प्रतिष्ठित नाम है। छायावाद के प्रतिपादक कवियों में इनका नाम अत्यंत सम्मान से लिया जाता है। नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा एवं यामा उनके काव्य संकलन हैं। यामा पर ही इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।श्रृंखला की कड़ियां इनकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक अत्यंत सशक्त कृति है। स्मृति की रेखाएं व अतीत के चलचित्र इनके अत्यंत लोकप्रिय संस्मरण व रेखाचित्र संग्रह हैं।

 

समीक्ष्य कविता तुम मुझ में प्रिय फिर परिचय क्या महादेवी वर्मा की एक अत्यंत सुंदर रचना है। कविता में महादेवी जी ने एक आकुल-व्याकुल प्रेयसी के विपरीत एक सधी हुई परिपक्व मानस प्रेयसी का चित्रण किया है, जिसे अपने प्रिय के निकट रहने के लिए किसी किस्म के औपचारिक विग्रह की आवश्यकता नहीं।

कवयित्री को ऐसा महसूस होता है कि जब उसके प्रिय उसके भीतर स्थित हैं तो फिर ऐसे अनन्य का अन्य की तरह क्या परिचय करवाया जाए! कवयित्री को आकाश के चमकते तारों में, प्राणों की गतिशील सांसों में, पलकों की शांत थिरकन में और छोटे से हृदय के स्पंदन में प्रिय के होने का आभास होता है। वह इन सब के माध्यम से अपने प्रियतम की छवि अपने आंचल में समेट लाई है।

 

उगते हुए सूर्य की अरुणिम आभा में उसने अपने प्रिय की छवि देखी है। जाते प्रिय की पीठ रात की परछाई में भासित होती है। जहां आना जागरण का प्रतीक है, वहीं उनका जाना नींद के सपने जैसा है। अर्थात प्रिय का आना प्रियतमा या कवयित्री के लिए सूर्योदय (दिनारंभ) का प्रतीक है, तो वहीं उनका दूर होना रात्रि के अंधकारमय वातावरण का।

वह जागरण और स्वप्न के इस खेल से थक कर सो जाना चाहती है। उसका ध्यान प्रिय के आगमन और प्रस्थान पर ही है। उसे सृष्टि, प्रलय की भारी-भरकम क्रियाओं का तात्पर्य समझ कर क्या करना है?

 

कवयित्री को प्रिय के अधर मदिरा स्पर्शित लग रहे हैं। प्रिय  की मुस्कान मिश्रित मदिरा सदृश प्रतीत होती है। प्रिय का ख़याल ही मदिरालय सम है। साकी रूप में प्रिय को रखकर कवयित्री निश्चिंत है। अब उसे इस बात की फ़िक्र नहीं की प्रिय रूपी साकी उसे अमृत देता है या विष!

यहां आशय है कि जब मनुष्य प्रगाढ़ प्रणयावस्था में होता है तो अपने प्रियतम के साथ चुंबकीय आकर्षण में बंधे होकर पूरी तरह उसके प्रति एकनिष्ठ हो जाता है। प्रिय पात्र के अधरों और मुस्कान में मादक प्रकाश का नशा महसूस कर उसके ख़याल में डूब कर अपनी हर तरह की चिंता बिसरा देता है। किसी प्रकार का अविश्वास उस समय उसके मन में अपने प्रिय के लिए नहीं होता है।

 

प्रिय के सानिध्य में सांसों में नंदन वन के सुवासित पुष्पों की प्रतीति और प्रत्येक सांस में सौ-सौ जीवन का आभास होता है। अपरिचित विश्व स्वप्न में विचरण करता रहता है। स्वर्ग और नरक की निष्क्रिय लय से कवयित्री का अब कोई मोह नहीं,जब उसके जीवन में आंखों के सामने सब कुछ इतना जीवंत है।

 

कवयित्री अपने प्रिय में अपना स्व हारती (खोती) है, तो उसे अपने प्रिय में निवास मिलता है और जीत ले तो प्रिय को ही बांध ले। इससे सीपी रूपी हृदय में प्रिय रूपी मुक्त सागर भर लेगी। तो फिर हार-जीत का करना ही क्या है अब उसे? एकाकार होने की, स्वयं को विलीन कर देने की भावना के क्रम में कवयित्री लिखती है कि वह चित्रित है,प्रियतम रेखाओं का क्रम है,वह मधुर राग है और प्रिय स्वरों का संगम है, प्रियतम सीमाहीन है और प्रियतमा सीमा का भ्रम अर्थात विगत अहं है।

यह सब काया-माया बड़ी रहस्यमयी है। बिम्ब प्रतिबिंब की मानिंद दोनों एक दूसरे में उद्भासित हैं। दोनों वस्तुतः एक ही हैं। तो फिर प्रेयसी-प्रियतम का क्या अभिनय किया जाए! कहने का तात्पर्य है कि प्रेम में दो नहीं बल्कि दोनों एक ही हैं। जैसे- “प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय, “जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं”। कुछ ऐसा ही भाव इस प्रेमासिक्त कविता में महादेवी जी ने व्यक्त किया है।

 

© डॉ. संजू सदानीरा 

 

 

 तुम मुझ में प्रिय ! फिर परिचय क्या!
महादेवी वर्मा

 

तुम मुझ में प्रिय ! फिर परिचय क्या!

तारक में छवि प्राणों में स्मृति, 

पलकों में नीरव पद की गति, 

लघु उर में पुलकों की संसृति,

भर लाई हूँ तेरी चंचल

और करूँ जग में संचय क्या !

 

तेरा मुख सहाय अरुणोदय, 

परछाई रजनी विषादमय 

यह जागृति वह नींद स्वप्नमय,

खेल खेल थक थक सोने दो

मैं समझँगी सृष्टि प्रलय क्या !

 

तेरा अधर – विचुंबित प्याला, 

तेरी ही स्मित-मिश्रित हाला,

तेरा ही मानस मधुशाला, 

फिर पूछूं क्या मेरे साकी !

देते हो मधुमय विषमय क्या?

 

रोम-रोम में नंदन पुलकित,

साँस साँस में जीवन शत शत, 

स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित, 

मुझ में नित बनते मिटते प्रिय !

स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या?

 

हारूँ तो खोऊँ अपनापन, 

पाऊँ प्रियतम में निर्वासन, 

जीत बनूँ तेरा ही बंधन,

भर लाऊँ सीपी में सागर

प्रिय ! मेरी अब हार विजय क्या?

 

चित्रित तू मैं हूँ रेखा -क्रम,

मधुर राग तू मैं स्वर-संगम, 

तू असीम मैं सीमा का भ्रम,

काया छाया में रहस्यमय !

प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या?

दोनो ओर प्रेम पलता है कविता की मूल संवेदना पढ़ने के लिये नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें..

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