हरी घास पर घंटे भर एकांकी की मूल संवेदना

हरी घास पर घंटे भर एकांकी की मूल संवेदना

 

सुरेंद्र वर्मा आधुनिक दृष्टिकोण से सम्पन्न एक अत्यंत प्रतिभाशाली साहित्यकार हैं। इन्होंने नाटक, एकांकी उपन्यास एवं कहानी लेखन में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का उल्लेखनीय परिचय दिया है। इनके नाटक व एकांकियों में अंतर्द्वन्द,विश्लेषण और सूक्ष्म सौंदर्य बोध का दर्शन होता है।

इनके एकांकी हरी घास पर घंटे भर में जीवन की अलग-अलग परिस्थितियों का यथार्थ विश्लेषण किया गया है। इस एकांकी में सुरेंद्र वर्मा ने उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर परिवार के प्रति दंपति के दृष्टिकोण को बड़ी गहराई से उकेरा है।

समीक्ष्य एकांकी में तीन तरह के दृश्य एक साथ चल रहे हैं। नवविवाहित जोड़े की बातचीत, अधेड़ उम्र के पति-पत्नी की चिंताएं और उम्र के आख़िरी पड़ाव से गुज़र रहे वृद्ध दंपति का आपसी सामंजस्य इस एकांकी का मूल कथ्य है।

नवविवाहित जोड़ा एक रूमानी लम्हे के रोमांच से आपूरित है। हिंदी फिल्मों के नायक-नायिका की तरह पार्क में पेड़ों के नीचे बैठकर धुँधले भविष्य( भविष्य, जिसकी अभी कोई रूपरेखा नहीं बनी) की सुनहरी तस्वीर बना रहे हैं। वे दोनों अभी जीवन के ऊबड़-खाबड़ से नितांत अजनबी बस आत्ममुग्ध और पूर्णतः आत्मकेंद्रित है।

पैसे और समय की बचत इस उम्र में उनकी प्राथमिकताओं में नहीं है क्योंकि बच्चों का व अन्य ज़िम्मेदारियों का जीवन में अभाव है। ‘सपनों का छोटा- सा आशियाना बनाना उनका सपना है। एक दूसरे से चाहत रखना,साथ में खाना पीना और फ़िल्म देखना उनकी युवावस्था की पहचान है।

दूसरी तरफ अधेड़ उम्र के पति-पत्नी हैं,जिनकी प्राथमिकताएं पहले दंपति से अलग हैं। इन्हें दफ़्तर के पास और कम किराए वाला मकान चाहिए, ताकि समय और पैसे की बचत की जा सके। इन्हें राशन का सामान आम भारतीय परिवारों की तरह किफायत से खरीदना है,भविष्य की सुरक्षा हेतु बीमा की किस्त भरवानी है।

बच्चे बड़े हो रहे हैं तो उनकी शिक्षा संबंधी नई आवश्यकताओं की पूर्ति करनी है। हारी-बीमारी, तीज-त्योहार और आए-गए का खर्च एडजस्ट करना है। कुल मिलाकर यह जोड़ा मझधार की उम्र से गुज़र रहा है। उनके स्वयं के खेलने खाने की उम्र तो कब की गुज़र गई और अब बच्चों का भविष्य तराशने तथा परिवार पालने की ज़द्दोज़हद का दौर है।

 एकांकी में तीसरा जोड़ा और है जो तमाम पारिवारिक जिम्मेदारियां से निवृत्त होकर अपने एकाकीपन को काट रहा है। उनके स्वयं के बच्चे इतने बड़े हो गए हैं कि उनके शेष जीवन की लगभग सारी ज़िम्मेदारियां वे बेटा-बहू और पोता-पोती पूरी करने में सक्षम है।इस जोड़े की अलग पीड़ाएँ हैं, जो कुछ स्वयं की शारीरिक पीड़ाएं हैं तो कुछ बदलते समाज की नई तस्वीर की।

वर्तमान पीढ़ी का आधुनिक पहनावा, फैशनपरस्त रहन-सहन उनके लिए असहनीय है, ख़ासकर वृद्ध पुरुष के लिए। पति-पत्नी की शारीरिक पीड़ाओं का चित्रण बड़ा विश्वसनीय बन पड़ा है। आंखों से कम दिखना और घुटनों का दर्द कितना देखा-सा लगता है ना! युवा पीढ़ी के साथ ‘जेनरेशन गैप’ से उपजी पीड़ा भी एकदम वाजिब और यथार्थ है।

इस उम्र तक आते-आते हो जाने वाले सहज जुड़ाव का भी आत्मीय चित्रण किया गया है। जहां पत्नी पति के कंधे पर अपनी अर्थी का स्वप्न देखती है और पति चाहता है कि वह उसकी मृत्यु के बाद भी पोते-पोतियों की शादी का उत्सव देखे।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सुरेंद्र वर्मा द्वारा रचित हरी घास पर घण्टे भर एकांकी में मध्यमवर्गीय भारतीय परिवारों के प्रारंभिक रूप से लेकर पूर्णाहुति (अवसान अवस्था) तक की यात्राओं की मीठी और फ़ीकी तस्वीरें उकेरी गई हैं, जहां पूर्णाहुति भी वस्तुतः एक नई पीढ़ी के आगमन की सूचक है। एकांकी का दृश्य विधान और ट्रीटमेंट एक नवीनता और ताज़गी का एहसास कराता है। 

 

© डॉ. संजू सदानीरा 

 

इसी तरह स्मृतियों में पिता कहानी की मूल संवेदना पढ़ने के लिए नीचे दिये लिंक पर क्लिक करें

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