संजू सदानीरा की चुनी हुई कविताएं

संजू सदानीरा की चुनी हुई कविताएं

1.

मजबूत इरादों वाली औरतें,

जो अपनी शर्तों पर

जीती हैं अपना जीवन,

नहीं दबती जो किसी से

कमाल की मासूमियत रखती हैं।

बहुत संवेदनशील होती हैं-

मक्खन-सी नरम,

लेकिन..

रह जाती हैं अनभिव्यक्त ।

कौन समझे –

आग और पानी

एक साथ सहेजते

उस व्यक्तित्व को !

स्याह घेरे घिरा चेहरा

उत्सवों में अकेली,

उजाट जी लिए फिरती है,

तमाम बीमारियों से

बरी समझी जाती,

बस–

रात की गहराइयाँ

गिनती हैं,

उनकी सिसकियाँ ।

 

2.

 

कुछ हीरें रांझों पर नहीं रीझती

उनकी नज़रें हीर को ढूंढ रही होती है,

लैलाएं मजनुओं पर ही नहीं छिड़कती जान

लैलाएं भी जान ले लेती हैं उनकी,

जूलियट को रोमियो की तलाश ही नहीं होती

जूलियट के लिए भटक रही होती है हर मेले में निगाहें

मिल जाए अगर हीर,लैला या जूलियट

तो जां निसार कर देती हैं ये .

ज़माने की ज़मीन पर लहलहाती आई है

ये प्यार की फसलें

बस, जिक्र नहीं होता इन प्रेम कहानियों का…

अपराध की तरह

या रोग की तरह की जाती है चर्चा!!!

प्रेम –

जिसकी जात नहीं होती

मजहब नहीं होता

आखिर उसका जेंडर क्यों होता है???

इश्क़ जानलेवा रोग है जहाँ

वहाँ एक और रंग कैसे हो स्वीकार

और फिर इसका एक रंग भी तो नहीं है न!

सतरंगी इंद्रधनुषी होता है ये

सचमुच छाते जैसा

धूप-घाम से ही नहीं

हारी-बीमारी में तीमारदारी

करने वाला भी!

कैसे न तने भौंहे,

जो मुट्ठी में रखे बैठी है

एक पूरी आबादी के सपनों को?

सपने जिद्द पर जब उतरते हैं

बंद सब मुट्ठियों को खोल कर

बिखर जाते हैं हवाओं में

फैल जाती खुशबू फिज़ाओं में,

तनी भृकुटियों को अंगूठा दिखाते

मन ही मन मुसकुराते!!!

प्यार फिर परवान चढ़ता है

परवाह एक-दूसरे की करते ।

 

3.

 

धीरे-धीरे

एक निर्मम ठंड

चढ़ गई है

मन के ऊपर,

पसर गई है

चादर -सी,

हर हिस्सा

जिस्म का

अब इसकी लपेट

या कहूँ -चपेट में है.

कसमसाता हूँ यदाकदा

उष्मा की झलक को आतुर,

पलक भर में

रीढ़ की हड्डी तक

सिहर उठती है,

उतर आती है

अँधेरे घिरी

वही चिर-परिचित ठंड …

मैं फिर से

सिमट जाता हूँ

अपने खोल में,

इस बार का पतझड़

बेमियादी है ।

 

4.

 

उस दिन

नीले आसमान तले

आधे चांद वाली रात में

हम-तुम

तुम-हम

पूरे साथ,

आमने-सामने!

तुम्हारे कंधे पर

चांद चमक रहा था

और मेरी आंखों में चमक तुम्हारी

चांद और मैं

दोनों तुम्हें देख रहे थे

लेकिन एक बड़ा फ़र्क था

मुझमें और चांद में,

वो सिर्फ़ देख सकता था

चूम नहीं सकता था

इस ख्याल के साथ ही

मेरे होंठों ने हौले से

छू लिया

रोशनी में नहाया तुम्हारा कांधा ।

 

 

5.

 

क्या है प्यार-

कभी वक्त का एक लम्हा

जो गुजरता नहीं

किसी के बिना,

हजार चेहरों में

तलाश करना वो एक चेहरा,

जो दिखते ही

खिलती है

अनदिखती मुसकान.

सबसे छुपाकर

कभी उस जैसे चेहरे के पीछे जा

हौले से रख देना

कंधे पर हाथ.

पुरानी लिखावटों में

टटोलना किसी को,

कॉपी मे रखा

सूखा फूल

फिर से संभालना,

पुराने मौसमों में

नया-नया महसूस करना,

अपने चेहरे को तकना

और की नजरों से,

बैठे रहना अकेले

और सुधियों से बतियाना,

दर्द की

तीखी लहर से घिरे रहना

पर इत्मीनान होना –

किसी के न होकर भी होने का,

लिखते हुए खिलना

(कि “कोई”पढेगा).

खिलते हुए मर -सा जाना

कदाचित अपने ही मन के

उचट जाने से .

मन के मौसम की

न होना कोई भविष्यवाणी,

पल में सब पा लेने

तो पल में रेत सा

फिसल जाने का अहसास,

क्या है ये ????

हां,वही चेहरा,

हाँ वही लम्हा,

हाँ,वही मौसम,

हाँ वही खुशबू,

हाँ,यही मैं हूँ,

हाँ ,यही तुम हो,

हाँ,हम प्रेम में हैं,

हां हमीं प्रेम हैं ।

 

6.

 

घंटों, दिनों ,महीनों नहीं

सालों चलते रहने के बाद

मैंने मुड़ कर देखा-

मेरे बाद कोई नहीं था,

मेरे पीछे कोई नहीं था.

यूं इक राह छोड़ आया मैं

बहुत लंबी और सूनसान,

जिधर से हमेशा ही

पुकार लिये जाने का

मीठा सा भ्रम रहा मुझे,

लेकिन

एक लंबी और उदास

उम्र गुजार देने के बाद

जाना मैंने –

उस राह का

अकेला मुसाफिर था मैं,

जिसे इश्क़ कहते हैं,

मुहाल होता है

उस पर हमसफ़र का मिलना ।

 

7.

 

मुझे लगता रहा

प्रेम छाते की तरह हमेशा

बचा ले जाता जो

धूप, बारिश

और कभी-कभी

आपत्ति-विपत्ति से।

अब जाना –

उपेक्षा के सूने,गहरे कुएं में

फंस गये इंसान के लिए

कुएं के बाहर से फेंकी गई

रस्सी है प्रेम

कि जिसका सिरा पकड़ कर

कोई कुएं से बाहर निकल

ज़िन्दगी से फिर मुठभेड़

कर “भी” सकता है

बस..

इस “भी” पर गौर किया जाए !

 

8.

 

आओ,

युद्ध-युद्ध खेलें,

गिलहरी,गौरैया और गेंदा

निकाल फेंके शब्दकोश से,

गन,गोले और गर्जना

को बना दें मांगलिक,

आओ बहा दें

गेह और नेह को दूर कहीं,

विस्थापन और विनाश को

बना लें भविष्य अपना,

राजनीति को “शहादत”

कह झेलें,

आओ,

युद्ध-युद्ध खेलें।

 

9.

 

राख बन चुके रिश्तों को

टटोल कर ऊष्मा ढूंढना

और फिर घबरा कर

पीछे हट जाना,

अपनी ही बदमिजाजी

याद आना बार-बार

और उस पर शर्मिंदा भी न होना,

पिछली बेपरवाहियों पर इतराना

लेकिन रात गये

अकेले बिसूरना

इंसानी दिमाग की ग़फलत का

नायाब नमूना है।

सबको हिकारत से देखना,

प्यार को

फितूर से ज्यादा न समझना

बाज़ दफा सही तो होता है

लेकिन

सीने की बर्फ

सर्द मौसमों में

सांसों को बेहाल करती है

जीवन!

काश!

तुम सरल होते!!!

 

10.

 

भारी पत्थर-सी रात

धर दी गई

होश की छाती पर

वजूद छटपटाता रहा,

जाने किरचों-सी किरणें

कब पेशानी पर आई-

पत्थर लुढ़क कर

दूर सरक गया

होश को सांस आई!

ज़ुबां ने मन को टहोका-

अब के भूले से भी

इश्क़ के करीब से न गुजरना है!!!

 

 

 

11.

 

जीवन अकसर

इतना सरल नहीं होता

कि बाँध दिया जा सके

चंद उपमाओं के सहारे,

न इतना खूबसूरत

कि उसको

उपवन की उपमा

दी जा सके,

बाज़दफा तो ये

इतना कठिन होता है

जैसे गणित का

कोई कठिन सवाल,

जिसे सुलझाने में उलझ जाए

विशेषज्ञ भी,

इतने भर के बाद भी

एक गुंजाइश इसमें

बची रह जाती है

जी लेने की,

समझ लेने की।

जैसे अंत में

निकल आता ही है आखिर

हर जटिल प्रश्न का उत्तर

किसी तेज दिमाग

या एक अदद कुंजी से,

देखना,

कहीं कोई कुंजी

रखी होती है

हम सबके सामने

कठिन सवालों के

जवाब की तरह ,

बस आँखों में

अतीत की धुँध न हो

तो नजर आ सकती है वो

बिजली की चमक-सी-

लपक कर उठा लेना चाहिए

बिना कुछ भी विचारे,

कदाचित तब कभी

किसी रोज

जीवन को

उपवन की उपमा में भी

बाँधा जा सके।

 

12.

 

जीवन,

जो जी लिया गया,

सबसे अच्छा था,

दुख,

जो पी लिया गया

सबसे सच्चा था.

अब जो रह गया कहना-सुनना,

सब वो खुरचन है,

जो मन के तलछट में

चिपका रह गया ।

 

 

13.

बारीक- सी बात के बीच

भारी सी चुप्पी छुपी थी..

मन में उधेड़बुन नहीं थी

मन ही उधड़ा हुआ था.

मेरे उधड़े मन से

उसका जी उचाट से भर जाता है.

हम दोनों मेरे साझा दुख से

मुब्तिला होकर

गुम होने के ग़म से लबरेज़!

अचानक एक हिचकी के साथ

बांध टूट जाता है,

पानी कगारों से बह निकलता,

बादल छंट जाते.

हिचकिचाहट के बाद

खिलखिलाहट की खनक

गूंज जाती रोकते- रोकते.

हिचक और खनक के साथ

ज़िन्दगी अपने सफ़र पर है.

हम आक्रांत-

कभी सुख से कभी दुख से

सहज होने का अपना सुख है

और हम इसके ताबेदार ।

 

 

14.

 

जब मैंने चुना था सबसे अलग रास्ता,

तब पता था मुझे

अपनी अंगुली मुझे खुद को थामनी है,

नीम अंधेरे में चमकते आंसू पोंछने हैं

अपनी ही अंगुलियों से.

अक्सर ऐसे में तो

मेरा रुमाल तक नहीं मिलता ठिकाने से।

जबकि सिरहाने रखने की आदत

जाने कब पड़ गई थी!

निराशा में डूबे अपने मन को थामने के लिए

सुना देती हूँ कोई शौर्य गाथा,

जिसमें नायिका अपनी भवों से सरका देती है

लोगों के कुटिल आग्रह।

कयास तो कैसे-कैसे लगाये शुभचिंतकों ने

मनचाही मंज़िलों को लेकर

लेकिन वो नहीं जानते

मंज़िल की तलाश में नहीं भटका दिल कभी।

दरअसल, मुझे रास्ते ही मंज़िल लगे,

जिन पर चलना है मेरे दो कदमों को साथ-साथ

(अकेली कहाँ हूँ मैं!)

जब तक कदम को कदम इनकार न कर दे।

 

15.

 

आत्मप्रवंचना

के क्षणों से

बाहर आने पर

हर तारीफ

निश्शंक

आईना दिखा रही थी।

 

16.

 

मैं उसे लिखने ही वाला था

“मुझे मत भूलना”

इतने में याद आया

कि याद रखना

सबसे मारक क्रिया है

और तब-

मैं मन ही मन बुदबुदाया-

भूल जाना मुझे..

अपनी सहूलियत के लिए

“याद भर” रहूं जब तक रहूं

निकलूं ख्यालों से

तो बस,एक सांस -सा

या हिचकी-सा.

अहसास-सा कुछ

बचा न रह जाए कहीं

क्योंकि

याद रखने और भूलने के

बीच का झूला

नहीं रखने देगा

ख्यालों की दहलीज से पांव बाहर

जब जाना हो तो

निपट निर्द्वंद्व निकलो

यादों को कपाट में जड़

विस्मृति का ताला डाल।

 

 

©डॉ. संजू सदानीरा

 

स्त्री की अस्मिता

 

 

Dr. Sanju Sadaneera

डॉ. संजू सदानीरा एक प्रतिष्ठित असिस्टेंट प्रोफेसर और हिंदी साहित्य विभाग की प्रमुख हैं।इन्हें अकादमिक क्षेत्र में बीस वर्षों से अधिक का समर्पित कार्यानुभव है। हिन्दी, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान विषयों में परास्नातक डॉ. संजू सदानीरा ने हिंदी साहित्य में नेट, जेआरएफ सहित अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के उपन्यासों पर शोध कार्य किया है। ये "Dr. Sanju Sadaneera" यूट्यूब चैनल के माध्यम से भी शिक्षा के प्रसार एवं सकारात्मक सामाजिक बदलाव हेतु सक्रिय हैं।

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